बहुत समय पहले एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिये। उसे किसी ने ऐसा कहा था की भिक्षा मांगने के लिए निकलते समय भिखारी झोली खाली नहीं रखते। थैली देख कर दूसरों को भी लगता है की इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।
पुर्णिमा का दिन था भिखारी सोच रहा था की आज अगर ईश्वर की कृपा होगी, तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी। यह देख कर भिखारी काफी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलनेवाले दान से उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी। जैसे-जैसे राजा कि सवारी निकट आती गयी, भिखारी कि कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गयी। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी कि तो मानो सांसें ही रुकने लगी, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी चादर उस भिखारी के सामने फैला दी और राहत कोष के लिए भीख कि याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। भिखारी ने आधे मन से अपनी झोली में हाथ डाला। फिर उसके मन में एक बात आयी कि देने से कोई चीज कभी घटती नहीं और लेनेवाले से देनेवाला बड़ा होता है। जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकले और राजा कि चादर में डाल दिये। हालांकि उस दिन भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब वह घर लौटा, तो दुखी मन से उसने अपनी झोली पलटी, तो उसके आश्चर्य का सीमा न रही। जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गये थे। एकाएक उसे समझ में आया कि यह दान कि महिमा के कारण ही हुआ। वह पछताया कि काश, उसने राजा को और अधिक जौ दिये होते, लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने कि आदत नहीं थी। आगे से भिखारी रोज जितना भीख में मांगता, उसका थोड़ा हिस्सा दान कर देता।
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