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वात रोग

वात रोग

          जो रोग शरीर में वायु के कारण पैदा होता है उसे वातरोग कहते हैं। वायु का दोष त्रिदोषों (वात, पित्त और कफ) में से एक मुख्य दोष हैं। यदि इसमें किसी प्रकार का विकार पैदा होता है तो शरीर में तरह-तरह के रोग पैदा हो जाते हैं जैसे- मिर्गी, हिस्टीरिया, लकवा, एक अंग का पक्षाघात, शरीर का सुन्न होना आदि।परिचय :

विभिन्न भाषाओं में नाम :


हिन्दी

वायु की बीमारियां।

अंग्रेजी

डिजीजेज ऑफ नर्वस् सिस्टम।

अरबी

वात बेमार, वायरोग।

बंगाली

बातरोग।

गुजराती

वानि बीमारी।

कन्नड़

वायु रोग।

मलया

वात रोगम्।

पंजाबी

वायु दे रोग।

तमिल

वात दे रोग।

तेलगु

वातरोगमुलु।

लक्षण     :

          वायु के कुपित होने पर संधियों (हडि्डयों) में संकुचन, हडि्डयों में दर्द, शरीर में कंपन, सुन्नता, तीव्र शूल, आक्षेप (बेहोशी), नींद न आना, प्रलाप, रोमांच, कूबड़ापन, अपगन्ता, खंजता (बालों का झड़ जाना), थकान, शोथ (सूजन), गर्भनाश, शुक्रनाश, सिर और शरीर के सारे भाग कांपते रहते हैं, नाक, लकवे से आधा मुंह टेढ़ा होना और गर्दन भी टेढ़ी होना या अन्दर की ओर धंस जाने जैसे लक्षण प्रकट होते हैं।

भोजन तथा परहेज :

1. लहसुन :
2. एरण्ड :
3. तिल :
4. निर्गुण्डी :
5. गाय का घी : 10 ग्राम गाय के घी में 10 ग्राम निर्गुण्डी के चूर्ण को मिलाकर खाने से कफ और वायु रोग दूर हो जाते हैं।
6. भेड़ का दूध : भेड़ के दूध में एरण्ड का तेल मिलाकर मालिश करने से घुटने, कमर और पैरों का वात-दर्द खत्म हो जाता है। तेल को गर्म करके मालिश करें और ऊपर से पीपल, एरण्ड या आक के पत्ते ऊपर से लपेट दें। 4-5 दिन की मालिश करने से दर्द शान्त हो जाता है।
7. काकजंगा : घी में काकजंगा को मिलाकर पीने से वातरोग से पैदा होने वाले रोग खत्म हो जाते हैं।
8. समुद्रफल :
8. जायफल : जायफल, अंबर और लौंग को मिलाकर खाने से हर तरह के वातरोग दूर होते हैं।
9. कौंच : कौंच के बीजों की खीर बनाकर खाने से वातरोग दूर हो जाते हैं।
10. नींबू :
11. असगन्ध :
12. अफीम : थोड़ी सी मात्रा में अफीम खाने से गठिया के तेज दर्द में आराम मिलता है।
13. नारियल :
14. आलू : कच्चे आलू को पीसकर, वातरक्त में अंगूठे और दर्द वाले स्थान पर लगाने से दर्द कम होता है।
15. राई :
16. चमेली : चमेली की जड़ का लेप या चमेली के तेल को पीड़ित स्थान पर लगाने या मालिश करने से वात विकार में लाभ मिलता है।
17. इन्द्रजौ : इन्द्रजौ का काढ़ा बनाकर उसमें संचन और सेंकी हुई हींग को डालकर वातरोगी को पिलाने से लाभ होता है।
18. आक :
19. मुलेठी :
20. आंवला : आंवला, हल्दी तथा मोथा के 50 से 60 मिलीलीटर काढ़े में 2 चम्मच शहद को मिलाकर दिन में 3 बार पीने से वातरक्त शान्त हो जाता है।
21. चित्रक : चित्रक की जड़, इन्द्रजौ, काली पहाड़ की जड़, कुटकी, अतीस और हरड़ को बराबर मात्रा में लेकर खुराक के रूप में सुबह-शाम सेवन करने से सभी प्रकार के वात रोग नष्ट हो जाते है।
22. अदरक : अदरक के रस को नारियल के तेल में मिलाकर वातरोग से पीड़ित अंग पर मालिश करना लाभकारी रहता है।
23. गाजर : गाजर का रस संधिवात (हड्डी का दर्द) और गठिया के रोग को ठीक करता है। गाजर, ककड़ी और चुकन्दर का रस बराबर मात्रा में मिलाकर पीने से जल्दी लाभ होता है। यदि ये तीनों सब्जियां उपलब्ध न हो तो उन्ही का मिश्रित रस पीने से शीघ्र लाभ होता है।
24. अड़ूसा (वासा) : अड़ूसा के पके हुए पत्तो को गर्म करके सिंकाई करने से संधिवात, लकवा और वेदनायुक्त उत्सेध में आराम पहुंचता है।
25. अगस्ता : अगस्ता के सूखे फूलों के 100 ग्राम बारीक चूर्ण को भैंस के एक किलो दूध में डालकर दही जमा दें। दूसरे दिन उस दही में से मक्खन निकालकर वातरोग से पीड़ित अंग पर मालिश करें। इस मक्खन की मालिश खाज पर करने से भी लाभ होता है।
26. गिलोय :
27. मेथी :
28. इमली : इमली के पत्तों को ताड़ी के साथ पीसकर गर्म करके दर्द वाले स्थान पर बांधने से लाभ होता है।
29. अखरोट : अखरोट की 10 से 20 ग्राम की ताजी गिरी को पीसकर वातरोग से पीड़ित अंग पर लेप करें। ईंट को गर्म करके उस पर पानी छिड़क कर कपड़ा लपेटकर पीड़ित स्थान पर सेंक देने से पीड़ा शीघ्र मिट जाती है। गठिया पर इसकी गिरी को नियमपूर्वक सेवन करने से रक्त साफ होकर लाभ होता है।
30. पुनर्नवा : श्वेत पुनर्नवा की जड़ को तेल में शुद्ध करके पैरो में मालिश करने से वातकंटक रोग दूर हो जाता है।
31. शतावर :
32. कुलथी : 60 ग्राम कुलथी को 1 लीटर पानी में उबालें। पानी थोड़ा बचने पर उसे छानकर उसमें थोड़ा सेंधानमक और आधा चम्मच पिसी हुई सौठ को मिलाकर पीने से वातरोग और वातज्वर में आराम आता है।
33. नागरमोथा : नागरमोथा, हल्दी और आंवला का काढ़ा बनाकर ठंड़ा करके शहद के साथ पीने से खूनी वातरोग में लाभ पहुंचता है।
34. वायबिडंग : आधा चम्मच वायबिड़ंग के फल का चूर्ण और एक चम्मच लहसुन के चूर्ण को एकसाथ मिलाकर सुबह-शाम रोजाना खाने से सिर और नाड़ी की कमजोरी से होने वाले वात के रोग में फायदा होता है।
35. तुलसी : तुलसी के पत्तों को उबालते हुए इसकी भाप को वातग्रस्त अंगों पर देने से तथा इसके गर्म पानी से पीड़ित अंगों को धोने से वात के रोगी को आराम मिलता है। तुलसी के पत्ते, कालीमिर्च और गाय के घी को एकसाथ मिलाकर सेवन करने से वातरोग में बहुत ही जल्दी आराम मिलता है।
36. सोंठ :
37. अजवायन :
37. कूट : कूट 80 ग्राम, चीता 70 ग्राम, हरड़ का छिलका 60 ग्राम, अजवायन 50 ग्राम, सोंठ 40 ग्राम, छोटी पीपल 30 ग्राम और बच 20 ग्राम के 10 ग्राम भूनी हुई हींग को कूटकर छानकर रख लें। फिर इसमें 5 ग्राम चूर्ण को सुबह खाली पेट गुनगुने पानी के साथ लेने से वायु की बीमारी में लाभ होता है।
38. सौंफ : सौंफ 20 ग्राम, सोंठ 20 ग्राम, विधारा 20 ग्राम, असंगध 20 ग्राम, कुंटकी 20 ग्राम, सुरंजान 20 ग्राम, चोबचीनी 20 ग्राम और 20 ग्राम कडु को कूटकर छान लें। इस चूर्ण को 5-5 ग्राम की मात्रा में सुबह और शाम खाना खाने के बाद गुनगुने पानी के साथ लेने से वात के रोगों में आराम मिलता है।
39. रास्ना : 50 ग्राम रास्ना, 50 ग्राम देवदारू और 50 ग्राम एरण्ड की जड़ को मोटा-मोटा कूटकर 12 खुराक बना लें। रोजाना रात को 200 मिलीलीटर पानी में एक खुराक को भिगों दें। सुबह इसे उबाल लें। जब पानी थोड़ा-सा बच जायें तब इसे हल्का गुनगुना करके पीने से वातरोग में आराम मिलता है।
40. नमक :
41. महुआ : महुआ के पत्तों को गर्म करके वात रोग से पीड़ित अंगों पर बांधने से पीड़ा कम होती हैं।
42. मूली : मूली के रस में नींबू का रस और सेंधानमक को मिलाकर सेवन करने से वायु विकार से उत्पन्न पेट दर्द समाप्त होता है।
43. प्याज : वायु के कारण फैलने वाले रोगों के उपद्रवों से बचने के लिए प्याज को काटकर पास में रखने या दरवाजे पर बांधने से बचाव होता हैं।
44. अजमोद : मूत्राशय (वह स्थान जहां पेशाब एकत्रित होता हैं) में वायु का प्रकोप होने पर अजमोद और नमक को साफ कपड़े में बांधकर नलों पर सेंक करने से वायु नष्ट हो जाती है।
45. अमलतास :
46. पोदीना :
47. फालसे : पके फालसे के रस में पानी को मिलाकर उसमें शक्कर और थोड़ी-सी सोंठ की बुकनी डालकर शर्बत बनाकर पीने से पित्तविकार यानि पित्तप्रकोप मिटता है। यह शर्बत हृदय (दिल) के रोग के लिए लाभकारी होता है।    
48. तेजपत्ता : तेजपत्ते की छाल के चूर्ण को 2 से 4 ग्राम की मात्रा में फंकी लेने से वायु गोला मिट जाता है।

आपके अनमोल आँखों के लिए ये व्यायाम है लाभकारी

उम्र बढ्ने के साथ-साथ आज हर व्यक्ति को आँखों की समस्याएँ (Eye problems) होने लगी है जिसका मुख्य कारण है प्रदूषण। वायु में स्थित धूलकण एवं धुआँ हमारे आँखों को बहुत नुकसान पहुँचते हैं। इसके कारण आँखों से पानी आना, आँखों का जलन, आँखें लाल होना तथा कम अथवा धुंधला दिखाई देने जैसी समस्या उत्पन्न होने लगती है। इन सभी समस्याओं से निजात पाने के लिए कई तरह के योगासन (Yogasan) है जिनके नियमित अभ्यास करके हम अपनी आँखों को स्वस्थ बना सकते है तथा नेत्र संबन्धित रोगों (Eye related disease) जैसे  मायोपिया और हाइपरमेट्रोपिया से छुटकारा पाया जा सकता है। 

प्रस्तुत है नेत्र के लिए कुछ आसान तथा प्रभावी व्यायाम जिसे कर के आप अपने आँखों को निरोग रख सकते हैं। 

अभ्यास - 1

  • अपने आंखों को बंद करके कुछ देर बैठें।
  • अपने हथेलियों को आपस में रगड़ कर गरम कर लें, फिर उन्हें धीरे-से आंखों पर रखें। अब महसूस करें कि हाथों की गरमाहट आंखों की पेशियों को विश्राम दे रही हैं। इस अवस्था में तब तक रहें, जब तक हाथों की संपूर्ण गरमाहट आंखों में स्थानांतरित होकर आंखों की पेशियों को विश्राम प्रदान करें। आंखें बंद रखते हुए हाथों को नीचे लाएं। एक बार फिर हथेलियों को रगड़ते हुए विधि को तीन बार दोहराएं।

अभ्यास - 2


  • अपने आंखें खोल कर बैठें।
  • पलकों को जल्दी-जल्दी दस बार झपकाएं। अब आंखें बंद करके 20 सेकेंड के लिए विश्राम करें। इस विधि को पांच बार दोहराएं।

अभ्यास - 3

  • पैरों को सीधा फैला कर बैठें। दोनों हाथों को सीधा रखते हुए कंधों के बराबर लाएं तथा अंगूठे को आकाश की ओर रखें।
  • आपकी दृश्य परिधि में अंगूठे को रखते हुए मुंह सामने रखें। दृष्टि को आंखों की सीध में केंद्रित करें। सिर को स्थिर रखते हुए बायें हाथ का अंगूठा भौहों के बीच लाएं। इस क्रम को 10-20 बार दोहराएं।
  • सांस लेने की प्रक्रिया : मध्य अवस्था में रहते हुए सांस अंदर लें, बाजू की ओर देखते हुए सांस छोड़ें।

अभ्यास - 4

  • पैरों को फिर सीधा फैला करके बैठें। बायें अंगूठे को बायें घुटने पर रखें (ध्यान रखें अंगूठा आकाश की ओर हो) सिर को स्थिर रखते हुए अपनी दृष्टि को बायें अंगूठे पर केंद्रित करें। इसी प्रक्रिया को बायें ओर से भी करें। इस अभ्यास के दौरान सिर और रीढ़ की हड्डी को सीधा अवश्य रखें। उसके बाद आंखों को बंद करके विश्राम दें।
  • सांस लेने की प्रक्रिया : मध्यावस्था में सांस अंदर लें और नीचे देखते हुए सांस छोड़ें। ऊपर देखते हुए सांस अंदर लें।

अभ्यास - 5

  • दोनों पैरों को सीधा फैला कर बैठें। बायें हाथ को बायें घुटने पर रखें। दाहिने पैर के ऊपर दायें हाथ की मुट्ठी, कोहनी सीधी रखते हुए बांधे, अंगूठे को आकाश की ओर खोले, दृष्टि को अंगूठे के ऊपर स्थिर रखते हुए अंगूठे से गोला बनाते हुए हाथ को घुमाए। ऐसा 5 बार एंटीकलॉकवाइज करें। अब इसे बायें अंगूठे से दोहराएं।
  • सांस लेने की प्रक्रिया : अंगूठे को चक्राकार घुमाते हुए सांस चक्र के ऊपरी भाग में लें तथा चक्र के निचले भाग में छोड़ें।

अभ्यास - 6


  • दोनों अंगूठों को आकाश की ओर रखते हुए दोनों मुट्ठियों को घुटनों पर रखें। धीरे-धीरे सीधे हाथ के अंगूठे को ऊपर आकाश की ओर रखते हुए, हाथ उठाएं। अंगूठे की गति को देखते रहें। हाथ को पूरी तरह उठाने के बाद धीरे-धीरे पुनः घुटनों पर लाएं। पूरी प्रक्रिया में अंगूठे के छोर को देखते रहें। इसे बायें अंगूठे से दोहराएं। इसका अभ्यास 5 - 5 बार करें।
  • सांस लेने की प्रक्रिया : ऊपर देखते हुए सांस अंदर लें। नीचे देखते हुए सांस छोड़ें।

चक्रपादासन (Chakrapadasana) - पेट की समस्याओं के लिए लाभकारी

पेट से संबन्धित समस्याओं को दूर करने के लिए चक्रपादासन (Chakrapadasan) एक लाभकारी आसान है। आज हमारा लाइफ स्टाइल काफी बादल गया है। फास्ट फूड का चलन काफी बढ़ गया है जिसके परिणामस्वरूप पेट की समस्या हर व्यक्ति को होने लगी है। दावा के प्रयोग से पेट की समस्या से थोड़ा आराम मिल तो जाता है पर इसका कोई स्थायी समाधान नहीं हो पता है। ऐसे स्थिति में इस आसान का नियमित अभ्यास आपको पेट से संबन्धित समस्याओं से निजात दिला सकता है। 

चक्रपादासन (Chakrapadasana) की विधि :
चक्र पादासन

चरण 1 : सबसे पहले जमीन में आप सीधे लेट जाएं। घुटने को सीधा रखते हुए दायें पैर को जमीन से 5 सेमी ऊपर उठाएं। पैर को बगैर मोड़े दायीं ओर से बायीं ओर वृत बनाते हुए दस बार घुमाएं। पैर को घूमाते हुए एड़ी को जमीन के साथ स्पर्श न होने दें। विपरीत दिशा में भी अभ्यास को 10 बार करें। फिर इसे बायें पैर से करें। इस कार्य में अधिक जोर न लगाएं। प्रारंभिक स्थिति में आकर सांसों के सामान्य होने तक विश्राम करें।

चरण 2 : दोनों पैरों को एक साथ ऊपर उठाएं। उन्हें सीधा रखें। दोनों पैरों को दायें से बायीं ओर फिर विपरीत दिशा में तीन से पांच बार घूमाते हुए बड़ा वृत बनाएं।

श्वसन : पूरे अभ्यास के दौरान सांसों को सामान्य बनाये रखने का प्रयास करें।

लाभ : यह आसन पेट से संबंधित समस्याओं जैसे- अपच, कब्ज, अम्लता, गैस, मधुमेह में लाभकारी है। पेट की पेशियों को सुदृढ़ बनाता है और अंगों की मालिश करता है।


मार्जारी आसन करने की विधि और इसके लाभ - Marjari Aasana

मार्जारी आसन (Marjariaasana) गरदन और मेरुदंड (रीढ़) (Carnia) को लचीला बनाता है तथा महिलाओं के प्रजनन तंत्र (Reproductive System) को मजबूत करता है। जिन लोगों को मेरुदंड के नीचले भाग में कड़ापन हो या लोअर बैक की समस्या रही हो, उनके लिए भी काफी लाभकारी है। इसके अलावा यह अभ्यास मधुमेह और पेट से संबंधित समस्याओं का भी निदान करता है।यह महिलाओं व पुरुषों दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और लाभकारी अभ्यास है। 

मार्जारी आसन की विधि (Marjari Aasana karne ki vidhi)

जमीन के ऊपर योग मैट अथवा चादर पर वज्रासन में बैठ जाएं। अब नितबों को उठा कर घुटनों के बल खड़े हो जाएं और आगे की ओंर झुके। दोनों हाथों को नीचे जमीन पर इस प्रकार रखे कि उंगलियां सामने की ओर रहें हाथ घुटनों के ठोक सीध में रहें,  भुजाएं और जांघ जमीन पर लंबवत रहें। दोनों घुटने एक साथ या थोड़ी दूरी पर रख सकते है। यह प्रारंभिक स्थिति है।
अब आप श्वास लेते हुए सिर को ऊपर उठाएं और मेरुदंड को नीचे की तरफ झुकाए ताकि पीठ धनुषाकार हो जाए। आमाश्य को पूर्णतः फैलाएं और फेफड़ों में अधिक-से-अथिक वायु भर लें। तीन सैकेंड तक स्वांस रोकें।
सिर को नीचे लाते हुए और मेरुदंड को धनुषाकार रूप में ऊपर ले जाते हुए श्वास छोडें। पूर्णत: श्वास छोड़ने के पश्चात आमाश्य व नाभी को ऊपर की तरफ संकुचित कर लें ओर नितंबों को ऊपर की ओर तानें। इस स्थिति में सिर भुजाओं के मध्य में जांघों के सामने होगा तथा ठुड्डी को छाती में सटाने का प्रयास करें। मेरुदंड के चाप को गहरा बनाते और आमाशय के सकुचन को बढ़ाते हुए तीन सेकेंड तक श्वास रोक कर रखें। यह एक चक्र हुआ। इस प्रकार आप आठ से 10 चक्र इस अभ्यास में कम से कम करें। जितना संभव हो, श्वास गति धीमा रखें. जब सिर ऊपर की तरफ और मेरुदंड नीचे की तरफ ले जाएं तो श्वांस अंदर लें और तीन सैकंड श्वास को अंदर रोके। जब सिर को नीचे की तरफ और मेरुदंड ऊपर की तरफ जायेगा तो श्वास बाहर की तरफ छोडें और यहां भी श्वास को तीन सेकंड तक बाहर रखे। अभ्यास के दोरान श्वसन को उज्जायी प्राणायाम के साथ उपयोग में ला सकते हैं।

अवधि:- अभ्यास को आठ से 10 चक्र अवश्य करें, ताकि इसका प्रभाव सामने आये।

सजगता:- अभ्यास के दौरान गलेऔर मेरुदंड के प्रति व झुकाव पर रखें। आध्यात्मिक स्तर पर अपने स्वाधिसृान चक्र पर सजग रहे।

यह आसन (Marjariasana) बिशेष रूप से गरदन, कंधो आउट मेरुदंड के लचीलेपन में सुधार लाता है तथा उनमें प्राणिक ऊर्जा का संचार बढ़ाता है। यह अभ्यास स्त्रियों के लिए अत्यंत लाभकारी आसन है। यह उनके प्रजनन तंत्र को पुष्ट करता है इसे छह महीने तक की गर्भावस्था में भी किया जा सकता है, फिर भी तीन महीने के बाद आमाशय के बलपूर्वक संकुचन से परहेज करना चाहिए। यदि किसी महिला में मासिक धर्म में अनियमितता हो या श्वेत प्रदर (ल्यूक्नोरिया) से ग्रस्त हो, तो उनके लिए मार्जारि आसन (Marjari Aasana) से काफी लाभ मिलता है। आसन से मासिक धर्म में ऐंठन में कमी आयेगी। मधुमेह रोगियो के लिए भी लाभप्रद है। 

अभ्यास टिप्पणी:- पूरे अभ्यास के दौरान अपनी भुजाओं को केहुनियों से न मोड़े। भुजाएं एवं जांघें बिल्कुल सीधी रखें। शरीर को आगे व पीछे की तरफ न हिलाएं

अर्ध शलभासन करने की विधि (Ardhshalbhasan in hindi)

अर्ध शलभासन (Ardhsalbhasana)

जिन लोगों को गंभीर कमर का दर्द हो या पीठ की तकलीफ हो, उनके लिए 'अर्ध शलभासन' (Ardhsalbhasan) अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस आसन से विशेष रूप से पीठ के निचले भाग की तंत्रिकाओं को लाभ मिलता है। यह पीठ की मांसपेशियों को शक्ति प्रदान करता है। (Kamardard ewam pith ke dard ke liye yogasan)
अर्ध शलभासन पीठ के निचले भाग को स्वस्थ व शक्तिशाली बनाने में विशेष लाभकारी है। यह सरल आसन है, जो पीठ और कमर के लिए बहुत उपयोगी है। साइटिका, स्पाइन व स्लिप डिस्क के रोगी के लिए यह सटीक अभ्यास माना गया है। (Yogasana for back pain, spinal chord and slipdisc).

हम यहां पर 'अर्ध शलभासन' के दो प्रकार (Two types of ardh-salbhasana) बताने जा रहे हैं।

प्रथम प्रकार (First method of Ardhsalbhasana):

इसके लिए आप जमीन में पेट के बल सीधे लेट जाएँ। आपके दोनों हाथों के हथेलियों को अपनी जांघों के नीचे रखें। दोनों पैरों को एक साथ सीधे सटा कर रखें और टुड्ढ़ी को जमीन पर रखें। पूरी शरीर एक सीधी लाइन में रहेगी। यह पहली अवस्था है। अब आप श्वास लेते हुए दाहिने पैर के घुटने को बिना मोड़े हुए अपनी क्षमतानुसार पीछे की तरफ ज्यादा से ज्यादा ऊपर उठाएं, इस दौरान बायां पैर सीधा रहेगा। इसके पश्चात श्वास छोड़ते हुए दाहिने पैर को नीचे लाएं। अब फिर इसी अभ्यास को बायें पैर से करें। इस प्रकार से दोनों पैरों से अलग-अलग पांच-पांच बार इस अभ्यास को दुहराएं। क्षमतानुसार इसकी संख्या को बढ़ा भी सकते हैं।

श्वसन : पैर को ऊपर उठाते समय श्वास अंदर लें और ऊपर रुकते समय श्वास भी अपने अंदर रोकें और जब आप पैर को नीचे लाना शुरू करें। तब श्वास को छोड़ना शुरू करें।

अवधि : यह आसन भी पांच चक्रों तक किया जा सकता है। क्षमतानुसार चक्रों की संख्या को बढ़ाया भी जा सकता है।

सगजता : अभ्यास के दौरान आपकी सजगता श्वास के साथ शरीर की गति पर तथा पीठ के निचले हिस्से, पेट और हृदय पर होनी चाहिए।
द्वितीय प्रकार (Second method of Ardh-salbhasan):

आसन की विधि (Aasan karne ke vidhi) : पेट के बल जमीन पर लेट जाएं। दोनों पैर एक साथ रहेंगे तथा ललाट जमीन पर और दोनों भुजाएं सिर के ऊपर आगे की ओर तने रहेंगे। टुड्ढ़ी को जमीन पर भी रखा जा सकता है। पूरे अभ्यास के दौरान पैर और भुजा सीधी रहेगी। अब श्वास लेते हुए सामने से बायां हाथ और पीछे से दायां पैर क्षमतानुसार ज्यादा से ज्यादा ऊपर उठाएं, साथ ही सिर भी उठाएं और फिर श्वास छोड़ते हुए हाथ और पैर को नीचे लाएं। अब पुनः सामने से दायां हाथ और पीछे से बायें पैर को ऊपर उठाएं और पूर्ववत श्वास छोड़ते समय प्रारंभिक स्थित मेन लौट जाएं। इस अभ्यास को पांच चक्र तक किया जा सकता है। क्षमतानुसार इसकी संख्या को बढ़ाया जा सकता है।

श्वसन : अभ्यास के दौरान पैर, भुजा और सिर को ऊपर उठाते समय श्वास लें तथा अंतिम स्थिति में श्वास को अंदर रोकें। पैर, भुजा और सिर को वापस प्रारंभिक स्थिति में लाते समय अपना श्वास छोड़े।

अवधि : कम-से-कम पांच चक्र तक किया जा सकता है।

सजगता : इस अभ्यास के दौरान सजगता शरीर की गति के साथ श्वास के तालमेल पर तथा उठे हुए पैर की उंगलियों से दूसरी तरफ के उठे हुए हाथ की उंगलियों तक शरीर के तिरछे खिंचाव पर रहनी चाहिए।

( दिल एक मिनट में 72 बार धड़कता है। अतः दिन में एक लाख बार, एक वर्ष में 36 लाख बार धड़कता है )

आसन के लाभ (Aasan ke labh):

इन दोनों आसन के लाभ बहुत हद तक एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं। इसको करने से पीठ की दर्द, साइटिका या स्लिप डिस्क में काफी लाभ मिलता है। इसके अलावा यह कब्ज को भी दूर करता है। यह आसन उनलोगों के लिए काफी लाभकारी है जिनकी पीठ कमजोर है या उसमें कड़ापन है, क्योंकि यह पीठ की पेशियों को शक्ति प्रदान करता है। विशेष रूप से पीठ के निचले भाग की तंत्रिकाओं को लाभ मिलता है। जिन लोगों को गंभीर कमर की दर्द हो या पीठ में तकलीफ होती है। उनके लिए ये दोनों ही आसन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

मेरुदंडासन (Merudandasana) - रीढ़ को मजबूत बनाती है

गलत ढंग से देर तक बैठने के कारण रीढ़ की हिड्डियों में समस्या उत्पन्न हो जाती है, अपने रोज दिन के व्यायाम में मेरुदंडसन  (Merudandasana) करके इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। 

मेरुदंडासन (Merudandasan) के अभ्यास से रीढ़ बनेगी मजबूत - अक्सर हम अपने घर में सोफे में अथवा अपने कार्यालय में काम करते वक्त कुर्सी में सही ढंग से या सीधा नहीं बैठते (sitting  posture) हैं। टेढ़े अथवा सही पोश्चर में नहीं बैठने से समय के साथ हमारे रीढ़ में समस्याएं (spinal problems) होने लगती है। चूँकि कार्यालय में हमें काफी देर तक बैठ कर काम करना होता है अतः हम पूरा समय सीधे बैठ नहीं पाते है और उम्र के साथ कमर दर्द (back pain) की शिकायत शुरू हो जाती है।
Merudandasana in hindi

 इस तरह से होने वाले रीढ़ की समस्या से बचने के लिए नियमित मेरुदंडासन का अभ्यास करना चाहिए। इससे रीढ़ की हड्डी मजबूत होती है और प्राण ऊर्जा में वृद्धि होती है। संस्कृत शब्द मेरु का शाब्दिक अर्थ पर्वत होता है और दंड का अर्थ है लाठी। यहां मेरुदंड का अर्थ रीढ़ की हड्डी से है।



आसन करने की विधि (How to do Merudandasan in hindi): सबसे पहले  जमीन पर बैठ जाएं और दोनों पैरों को घुटनों से मोड़ लें। दोनों पैरों के तलवों के बीच लगभग दो से तीन फीट की दूरी रखते हुए उन्हें नितंबों के सामने जमीन पर रखें। अब दोनों पैरों के अंगूठों को हाथों से अलग-अलग पकड़ लें। शरीर को शांत बनाएं तथा श्वास लेते हुए धीरे से पीछे की ओर झुकते हुए दोनों पैरों को सीधा कर दें तथा दोनों पैरों को धीरे-धीरे क्षमता के अनुसार अलग-अलग करते जाएं। इस दौरान मेरुदंड सीधी रहेगी। आंखों को सामने किसी भी एक बिंदु पर एकाग्र रखें और अंतिम अवस्था में क्षमता के अनुसार रुकने का प्रयास करें। इसके बाद वापस धीरे-धीरे अभ्यास प्रारंभिक स्थिति में आ जाएं। अब थोड़ा रुक कर जब श्वास सामान्य हो जाए तो पुनः इसी अभ्यास को कर सकते हैं।

श्वसन: इस अभ्यास के दौरान आप जमीन पर सीधे बैठें। उस समय कश्वास अंदर लें और जब पैर फैलाते हैं उस समय और अभ्यास की अंतिम स्थिति में श्वास अंदर ही रोकने का प्रयास करें, किंतु अभ्यास की अंतिम अवस्था में जब आप लंबी समय तक रुकते हैं, तो उस समय आप सामान्य श्वास ले सकते हैं। जब आप अपने पैरों को वापस धीरे-धीरे जमीन की तरफ लाना शुरू करते हैं उस समय श्वास को धीरे-धीरे बाहर छोड़ना शुरू करें।

अवधि : यह एक संतुलन का अभ्यास है। अतः शुरू में आप इस अभ्यास को पांच बार तक कर सकते हैं तथा अंतिम अवस्था में जितनी देर तक संभव हो अपनी क्षमता के अनुसार रुकने का प्रयास करें। बाद में आप इसके अभ्यास को अपनी क्षमता के अनुसार बढ़ा सकते हैं।

सजगता : इस अभ्यास के दौरान शरीर के संतुलन एवं श्वास के प्रति हमेशा सजग रहें। यदि आप चाहें, तो अपने सामने दीवार पर किसी बिंदु पर अपनी एकाग्रता को केन्द्रित करें। आध्यात्मिक स्तर पर आपकी सजगता स्वाधिष्ठान चक्र पर रहेगी।

सीमाएं : इस अभ्यास को उन लोगों को नहीं करना चाहिए, जिन्हें हृदय रोग, स्लिप डिस्क, सायटिका, आंखों की गंभीर समस्या हो।

मेरुदंडासन के फायदे:- प्राण शक्ति का होता है संचार यह अभ्यास मेरुदंड को मजबूत बनाता है और उसमें प्राण शक्ति का संचार करता है। इस अभ्यास से समान्यतः मेरुदंड की खिसकी हुई हड्डियां सुव्यवस्थित होती है। इस आसन से अनुकंपी (sympathetic) और परानुकंपी (parasympathetic) स्नायु मंडलों (nervous system) हित सम्पूर्ण स्नायु-मंडल के कार्यों में सुधार लाता है तथा इससे नवीन शक्ति प्राप्त होती है। यह आसन हमारे पेट में अंगों, विशेषतः यकृत (liver) को पुष्ट करता है और पेट की पेशियों (abdominal muscles) को मजबूत बनाता है तथा आंतों के किटाणुओं को नष्ट करता है और कब्ज को दूर करता है। अतः इस अभ्यास से पाचन संबंधी सभी अंग स्वस्थ होते हैं तथा एकाग्रता में काफी सुधार होता है।

नोट : यह संतुलन का अभ्यास है, जो शारीरिक और मानसिक संतुलन को सकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है, किंतु इस अभ्यास को बिना किसी कुशल योग्य प्रशिक्षक के नहीं करना चाहिए। अन्यथा इसके नकारात्मक परिणाम भी हो सकते हैं।