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डायबिटीज से बचना है तो प्री डायबिटीज कि पहचान करना सीख लें

अनियमित जीवन शैली एवं खान-पान के कारण यदि शरीर में शुगर लेवल सामान्य से थोड़ा बढ़ जाये परंतु डायबिटीज के मानक लेवल से कम हो तो इस अवस्था को प्री-डायबिटीज कहा जाता है। इस अवस्था पर यदि अपने जीवन शैली एवं खान-पान में नियंत्रण न किया जाए तो आपको डायबिटीज होना निश्चित है। पौष्टिक भोजन एवं एक्टिव रह कर इसे रोका जा सकता है।
वर्तमान में हमारा दिनचर्या क्या है
आज हमारे जीवनशैली में बहुत सारी अनियमितताएँ आ गई है। प्रचीन काल में मनुष्य दिन में कार्य करते थे और रात होते ही सो जाते थे। इससे हमारे शरीर को आराम मिलता था। हमारे सारे शारीरिक तंत्र सही ढंग से कार्य करते थे और मनुष्य स्वास्थ और बलवान रहता था। परंतु आज हर कार्य में अनियमितता आ गई है। सुबह हम देर से उठते हैं। व्यायाम करने का हमारे पास वक्त नहीं है। भोजन में हम जंक फूड या फास्ट फूड का ज्यादा इस्तेमाल करते है। ऑफिस में ज्यादातर समय हम बैठ कर गुज़ार देते हैं, और तो और देर रात बैठ कर टेलेविजन का आनन्द लेते है। हर कार्यों में अनियमितता दिखता है। इसके साथ-साथ आज हमारे शरीर को कई तरह के प्रदूषण कि भी मार झेलनी पड़ती है।

हमारे शरीर में ग्लूकोज या शुगर का क्या कार्य है
साधारण भाषा में यदि समझने कि कोशिश किया जाए तो शुगर हमारे शरीर के लिए ऊर्जा का स्त्रोत है। जब भी हम भोजन ग्रहण करते हैं, उस भोजन में कार्बोहाइड्रेट होता है। यह हमारे शरीर में जाकर टूटता है जिससे भोजन में स्थित ग्लूकोज अलग होता है। पाचन क्रिया के दौरान यह ग्लूकोज रक्त में पहुंचता है। यहाँ यह इंसुलिन, जो एक प्रकार का होर्मोन है, के मदद से शरीर कि कोशिकाओं तक पहुँच कर ऊर्जा में बादल जाता है। इस तरह भोजन द्वारा ग्रहण किया गया ग्लूकोज ऊर्जा के रूप में शरीर से बाहर आ जाता है। अगर इस पूरे प्रक्रिया में जरा-सी भी खराबी आ जाये तो यही प्री-डायबिटीज का कारण बन जाता है।

प्री-डायबिटीज के लिए इन बातों का ध्यान अवश्य दें
1. क्या आपकी उम्र 40 या इससे अधिक हो गई है
2. क्या आपका शरीर ज्यादा सक्रिय नहीं है
3. क्या आपका ब्लड प्रेशर ज्यादा रहता है
4. क्या आपका वजन नियमित रूप से बढ़ रहा है
5. महिलाओं में यदि गर्भावस्था में डायबिटीज हुई है
6. घर में यदि किसी और को डायबिटीज हुई है
अगर उपरोक्त में से कोई भी एक बात आप में है तो आपको यही सलाह है कि कम से कम एक बार अपना शुगर लेवल कि जांच अवश्य करा लें।

प्री-डायबिटीज के क्या-क्या है लक्षण
अगर आपके शरीर में शुगर लेवल सामान्य से थोड़ा ज्यादा हो जाए तो आपके शरीर में निम्नलिखित लक्षण दिखाई दे सकते हैं:-
1. भूख ज्यादा लगना
2. अचानक वजन का बढ़ना
3. थोड़ी-थोड़ी देर में प्यास लगना
4. पेशाब जल्दी-जल्दी आना
5. आँखों का दृष्टि कमजोर होना
6. शरीर के कुछ हिस्सों में त्वचा पर कालापन आना इत्यादि।
हालांकि इन लक्षणों कि पहचान तुरंत नहीं हो पाती है अतः इसके लिए हमें खुद जागरूक होना होगा। इन लक्षणों कि पहचान हमें खुद करनी होती है।

प्री-डायबिटीज होने का वैसे तो कोई स्पष्ट कारण नहीं है। यह कभी फैमिली हिस्ट्री कि वजह से होती है तो कई बार आनुवांशिक भी होती है। परंतु डॉक्टरों का कहना है कि आज-कल प्री डायबिटीज होने का मुख्य कारण हमारी गलत लाइफस्टाइल और खान-पान है। शारीरिक क्रियाकलाप कि कमी के कारण हमारे शरीर में फैट कि मात्रा बढ्ने लगती है जो प्री-डायबिटीज को जन्म देती है।

कैसे करें बचाव
चिकित्सकों का मानना है कि 90% प्री-डायबिटीज का मरीज यदि अपने लाइफस्टाइल पर बदलाव लाये तो इसे नियंत्रित किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम अपने नित्य कार्यों को उसके समय के अनुसार अर्थात सुबह समय पर उठना, समय पर भोजन करना तथा रात में समय पर सो जाना आदि करते हैं तो आपके शरीर में शुगर लेवल नियंत्रित रहेगा।

यदि पिछले कुछ समय से आपका वजन बढ़ रहा है तो इसे बढ़ने न दें। वजन घटाने कि पूरी कोशिश करनी चाहिए। वजन घटाने एवं शरीर को एक्टिव रखने के लिए रोजाना मॉर्निंग वॉक एवं व्यायाम अवश्य करें। व्यायाम करने से आपके शरीर में स्थित अतिरिक्त शुगर ऊर्जा के रूप में निकाल जाती है। रोजाना कम-से-कम आधा घंटा व्यायाम अवश्य करना चाहिए। 10-15 दिनों में ही आपको सकारात्मक परिणाम दिखने लगेगा।

अन्त में आपको अपने खान-पान पर विशेष ध्यान देने कि जरूरत है। हमेशा सादा भोजन करने कि कोशिश करें। अधिक वसायुक्त व प्रोटीन युक्त तथा तले-भुने हुए खाद्य पदार्थों से परहेज करें। थोड़ा-थोड़ा करके दिन में कई बार खाना खाएं। दो भोजन के बीच लंबा अंतराल आने पर शुगर लेवल बढ़ने लगता है और कमजोरी महसूस होने लगती है।

बात करने में मोबाइल फोन के ज्यादा प्रयोग से ब्रेन स्ट्रोक का खतरा

आज मोबाइल फोन का इस्तेमाल लगभग हर कोई करता है। बिना इसके हम अपने आपको अधूरा सा महसूस करने लगते है। इसके द्वारा हम अपने कई कामों को चुटकी में ही निपटा सकते है। अतः मोबाइल फोन वर्तमान में हमारी जरुरत बन गई है। जहाँ इसके इतने सारे फायदे है वहीं यह हमारे शरीर के लिए खतरनाक भी है।
मोबाइल रेडिएशन से मानव शरीर में होने वाले प्रभावों को जानने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों के वैज्ञानिकों द्वारा कई शोध किया गया। शोध के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला गया कि मोबाइल रेडिएशन से हमारे शरीर को ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारियों का खतरा नहीं है।

परंतु मोबाइल के मशहूर कंपनी नोकिया कि धरती फ़िनलैंड में रेडिएशन एंड न्यूक्लियर सेफ़्टी ओथोरिटी द्वारा दो साल तक किये गये नवीनतम अध्ययन के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मोबाइल रेडिएशन से मस्तिष्क के टिश्यू क्षतिग्रस्त होने लगते हैं। इतना ही नहीं ये रेडिएशन रक्त नालियों कि सिकुड़न के लिए भी ज़िम्मेवार है। इस तरह मोबाइल फोन के अत्यधिक इस्तेमाल से ब्रेन स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। इसके अलावा मोबाइल टावर भी हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के लिए खतरनाक है। टावर के 300 मीटर के क्षेत्र रेडिएशन का सबसे अधिक खतरा होता है। इससे बचने के लिए मोबाइल का प्रयोग उतना ही करना चाहिए जितना जरूरी हो। रात को सोने के वक्त मोबाइल को तकिये के नीचे न रखें।

फेलोपियन ट्यूब कैंसर क्या है, इसकी जाँच एवं उपचार (What is Fallopian Tube Cancer, its tests and treatments in hindi

"फेलोपियन ट्यूब ( fallopian tube) का कैंसर भी अंडाशय (Overies) के कैंसर की तरह ही खतरनाक होता है और लक्षण भी वेसे ही होते हैं। इसका एक मात्र इलाज सर्जरी है। अन्यथा बढ जाने पर यह पूरे पेट में फैल सकता है।"
फेलोपियन ट्यूब क्या है? What is Fallopian Tube in Hindi?
Fallopian-Tube-Cancer

महिलाओं के गर्भाशय के दोनों ओर अंडाशय होती है। गर्भाशय और अंडाशय को मिलाने वाली दो पतली ट्यूब (नाल) को ही फेलोपियन ट्यूब कहते हैं जो अंडों को उसके अंडाशय (Overies) से उसके गर्भाशय (Uterus) तक ले जाती है जहाँ अंडे या तो पुरुष शुक्राणु से निषेचित (Fetilized) होती है या फिर मासिक धर्म (menstruation) के दौरान बाहर निकाल जाती है।

महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर (Breast Cancer) और यूटेरस के कैंसर (Utreus Cancer) के बाद फेलोपियन ट्यूब में होनेवाला कैंसर भी बहुत ही खतरनाक है। इसके ब्लॉक होने पर बाँझपन का भी खतरा होता है। कैंसर का यह प्रकार इस ट्यूब में ही विकसित होता है।
कैसे होता है यह कैंसर
हमारे शरीर में नई कोशिकाओं का विकास निरंतर होता रहता है जो पुरानी और क्षतिग्रस्त कोशिकाओं का स्थान लेती रहती है। परंतु जब किसी अंग में इन कोशिकाओं का विकास किसी कारण से असामान्य ढंग से होने लगता है, तो उस अंग में ट्यूमर का निर्माण होता है। इस तरह बने कुछ ट्यूमर बहुत ही घातक होते हैं। अतः जब किसी महिला के फिलोपियन ट्यूब में ट्यूमर का निर्माण होता है तो इससे उस महिला में फेलोपियन ट्यूब कैंसर की शुरुआत होती है। इस ट्यूमर में अधिक वृद्धि होने पर कैंसर पेट में भी फैलने की संभावना होती है। 

यह कैंसर 18-88 साल के महिलाओं में हो सकता है, जबकि 40-65 साल की महिलाओं में होने की ज्यादा संभावनाएं होती है। हालांकि कैंसर का यह प्रकार बहुत ही असामान्थ होता है। कुछ महिलाओं में यह कैंसर आनुवंशिक होता है, तो कुछ में जीवनशैली के कारण यह विकसित होता है। बीआरसीए 1 या बीआरसीए 2 जिन्सवाली महिलाओं में इसके होने का खतरा अधिक रहता है।

फेलोपियन ट्यूब कैंसर के लक्षण (Symptoms of Fallopian Tube Cancer in Hindi)

  • बहुत ज्यादा रक्त स्राव होना, खास कर मोनोपॉज (Menopause) के बाद (मासिक धर्म बंद होने के बाद)।
  • पेट में असहनीय दर्द होना या पेट में तेज दबाव का अहसास होना।
  • सफेड या गुलाबी रंग का द्रव अनियंत्रित रूप से निकलना।
  • पेट पर अतिरिक्त चर्बी जमना आदि।

अत : ऐसे लक्षण दिखने पर सावधानी बरते और तुरंत डॉक्टर से जांच कराएं।

जाँच एवं उपचार (Test and Treatment)
चूँकि यह बहुत ही असामान्य कैंसर है इसलिए जब भी पेट की कोई समस्या होती है तो डॉक्टर इसे दूसरी समस्या से जोड़ते हैं क्योकि पेट गर्भाशय में ट्यूमर, संक्रमण ओवेरियन ट्यूमर या एडोमेट्रियल कैंसर के कारण भी यही लक्षण दिखाई देते है। इसकी पुष्टि के लिए ब्लड टेस्ट किया जाता है। अगर ब्लड टेस्ट में सीए-125 का स्तर बहुत अधिक है तो यह फंलोपियन ट्यूब के कैसर का संकेत हो सकता है। अल्ट्रासाउंड और सीटी स्केन के जरिये इस रोग की पुष्टि होती है। अल्ट्रासाउंड के जरिये यह भी पता लगाया जाता है कि कहीं पेल्विक क्षेत्र में ट्यूमर का विकास बहुत अधिक तो नहीं हो गया है।

सर्जरी (Surgery):- सर्जरी के जरिये फैलोपियन ट्यूब को निकाल दिया जाता है नहीं तो यह दूसरे अंगो को भी प्रभावित कर सकता है। इस सर्जरी को करने के बाद ओवेरियन कैंसर (ovarian cancer) का खतरा भी कम होता है क्योकि माना जाता है कि ओवेरियन कैंसर की उत्थति भी फेलोपियन ट्यूब से ही होती है। रोग से बचने के लिए अगर आपके घर में  किसी को यह समस्या हुई है तो आप नियमित जायं कराती रहैं।

बुजुर्गों के भूलने की आदत को नजरअंदाज ना करें - अल्जाइमर (Alzheimer) हो सकता है

उम्र बढ्ने के साथ-साथ बुजुर्गों में भूलने की समस्या (Memory loss) शुरू होने लगती है। कुछ तो उम्र के कारण होती है परंतु यदि किसी बुजुर्ग में यह समस्या ज्यादा बढ़ जाता है तो यह अल्जाइमर (Alzheimer) भी हो सकता है। यदि इसकी पहचान शुरुआत में ही हो जाता है तो दवाइयों की सहायता से इस समस्या के बढ़ने की गति को धीमी की जा सकती है। ढलती उम्र में बीमारियां वृद्धों को अपना शिकार बनाती हैं। इनमें से अल्जाइमर ऐसी बीमारी है, जिसका अभी तक कोई भी स्थायी इलाज उपलब्ध नहीं हो पाया है।

क्या है अल्जाइमर (What is Alzheimer?)
अल्जाइमर (Alzheimer) मस्तिष्क से संबन्धित बीमारी है, जिसमें मरीज अपनी स्मरण शक्ति धीरे-धीरे खोना शुरू कर देता है। प्रारम्भ में मरीज की स्मरण शक्ति धीरे-धीरे कम होने लगती है। जिसके कारण उसे अपने कामों को करने में मुश्किलें आती है। यह मरीज के मस्तिष्क की कोशिकाओं के धीरे-धीरे नष्ट होने के कारण होता है। मरीज अपना रखा हुआ सामान भूल जाता है अथवा कभी किसी परिचित का नाम भूल जाता है। रोग ज्यादा बढ़ जाने के स्थिति में मरीज यदि अकेले घूमने निकलता है तो वापसी में अपने घर का रास्ता ही भूल जाता है। अतः इस रोग से पीड़ित व्यक्ति के साथ अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। सावधानी बरत कर इस रोग पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।

अल्जाइमर की तीन अवस्था (स्टेज) होती है (Three stages of What is Alzheimer)

फर्स्ट स्टेज : यह शुरू की अवस्था है। इसमें व्यक्ति कुछ समय के लिए कुछ बातें भूल जाता है। यह कोई विकट स्थिति नहीं है। इस अवस्था में अक्सर इसकी पहचान नहीं हो पाती है। मगर इसी अवस्था में मरीज की जीवनशैली बदल दी जाये, तो रोग पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। इस अवस्था में चिकित्सक लक्षणों पर काबू पाने के लिए दवाएं देते हैं, जो लाभदायक सिद्ध होते हैं।  

सेकेंड स्टेज : मरीज की मानसिक क्षमता कमजोर हो जाती है और उसे देख-रेख में रहना पड़ता है। व्यक्तित्व में भी बदलाव आता है। यह स्टेज लंबे समय तक चलती है। याददाश्त बहुत कमजोर हो जाती है, यहां तक कि मरीज परिजनों को भी भूल जाता है। इस अवस्था में मरीज दैनिक कार्य जैसे नहाना, शौच आदि स्वयं कर सकता है, मगर उसे बताना पड़ता है।

थर्ड स्टेज : मरीज शारीरिक क्रियाओं पर नियंत्रण खो देता है। ऐसी अवस्था में 24 घंटे मरीज के साथ रहना पड़ता है, वह भी सावधानी से। कई बार इस अवस्था में मरीज देखभाल करनेवाले को भी हानि पहुंचा सकता है।

अल्जाइमर के शुरुआती लक्षण क्या है (What is What are the early semptoms of Alzheimer in hindi)

उम्र बढ़ने के कारण भी बुजुर्गों में कई बार कुछ चीजें भूलने की समस्या होती है। परंतु यदि किसी बुजुर्ग में यह समस्या बार-बार होने लगती है तो यह अल्जाइमर (Alzheimer) की शुरुआती लक्षण हो सकती है। चूंकि यह मस्तिष्क को धीरे-धीरे ही प्रभावित करती है अतः इसके कोई ठोस लक्षण दिखाई नहीं देती है। इस रोग से ग्रसित व्यक्ति धीरे-धीरे अपने रोज़मर्रा के कार्य को भूलने लगता है जैसे प्रतिदिन प्रयोग किये जाने वाले स्थान, अपने हर दिन का काम इत्यादि। परंतु जैसे-जैसे उसकी याददाश्त कमजोर होती जाती है, वह किसी परिचित का नाम ही भूल जाता है या फिर किसी परिचित को पहचान ही नहीं पता है। मरीज उदास सा रहने लगता है, कम बोलता है, चिड़चिड़ापन हवी होने लगता है, उनके व्यवहार में बदलाव आ जाता है तथा कभी-कभी बेवजह कार्य करने लगता है। अगर ये सभी लक्षण किसी बुजुर्ग व्यक्ति में होते हैं तो वह व्यक्ति अल्जाइमर से पीड़ित हो सकता है। 

यदि बुजुर्गों में ये लक्षण देखें, तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें और पता करें कि इसका कारण क्या है।

  • नकारात्मक विचार : यदि बुजुर्ग अत्यधिक तनाव की शिकायत करें या फिर उन्हें मृत्यु का भय अधिक सता रहा हो।
  • सोने में कठिनाई : यदि वे रात में सोने में कठिनाई महसूस करें, लेकिन दिन में भी उन्हें नींद न आये, कम या अधिक सोना डिप्रेशन का संकेत हो सकता है।
  • थका महसूस करना : यदि वे किसी काम को रोज करते हों, लेकिन अचानक कहें कि वे थकान के कारण उस काम को नहीं कर पा रहे हैं।
  • दुखी रहना : बिना उचित कारण के दुखी रहना, पूछने पर सही कारण न बता पाना।
  • वजन कम होना : यदि वे कहें कि उन्हें भूख कम लग रही है और उनका वजन लगातार गिर रहा हो लेकिन जब उन्हें पसंद की चीज खाने को मिले, तो वे चाव से खाते हों।
  • नशे का सहारा लेना : यदि अचानक से किसी नशीले पदार्थों का सेवन करना शुरू कर दें।
  • पसंदीदा कामों को भूलना : रोज के कामों के अलावा अपने पसंदीदा कामों को भी भूलना शुरू कर देना।
  • अकेले रहना : पहले वे काफी सामाजिक रहें हों, लेकिन अब अकेले टीवी देखना या अकेले  रहना ही पसंद कराते हों।
यदि उपर्युक्त लक्षण दिखाई दें, तो ये अल्जाइमर (Alzheimer) के लक्षण हो सकते हैं।

यदि अल्जाइमर के लक्षण (Alzheimer of Symptoms) दिखे तो क्या करना चाहिए

याददाश्त को मजबूत करने के उपाय अपनाएं। इसे अपना कर ही अल्जाइमर से बचा जा सकता है।
  • प्रत्येक दिन एक नये शब्द और उसके अर्थ को सीखें। इससे ज्ञान में वृद्धि होने के साथ ही शब्द भंडार भी बढ़ता है।
  • प्रतिदिन उच्चारण का अभ्यास करें। जिन शब्दों को बोलें उन्हें सही-सही लिखने का प्रयास करें।
  • दिमागी व्यायाम के लिए कुछ  देर वीडियो गेम खेलें। इससे आंखों और हाथों के बीच ताल-मेल की क्षमता बढ़ती है।
  • तनाव में हो, तो किसी अन्य बात को सोचना शुरू करें अथवा अकेले न रहें और लोगों से मिलें और बातें करें।
  • कोई भी वाध यंत्र बजाने का अभ्यास करें। इससे हाथों पर अच्छा नियंत्रण रहता है।
  • कहीं भी रहें, अपने आस-पास की चीजों पर ध्यान दें। इससे भी याददाश्त सही रहती है। 
  • शारीरिक गतिविधियों को बढ़ा कर भी तनाव से मुक्ति पायी जा सकती है। इसके लिए रोज व्यायाम करना भी अच्छा विकल्प है।
  • दोपहर के समय हल्की नींद लें। इससे दिमाग तरोताजा रहता है।
  • पजल्स को सुलझाने से दिमाग का अच्छा व्यायाम होता है। अतः रोज इसका अभ्यास करें।
यदि आपके घर में किसी बुजुर्ग अथवा व्यक्ति में उपरोक्त लक्षण दिखाई दे तो आपको क्या करना चाहिए

सबसे पहले तो आपका व्यवहार उस बुजुर्ग अथवा व्यक्ति के प्रति नरम होना चाहिए। कठोर व्यवहार से मरीज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। मरीज से शांत और दोस्ताना तरीके से बातचीत करें। याददाश्त कमजोर होने के कारण उनसे बातचीत में छोटे और जाने-पहचाने शब्दों का इस्तेमाल करें। मरीज से आदेश के लहजे में कभी बात न करके अपितु समझाने के लहजे में या शांत लहजे में ही बात करना चाहिए। उनकी बात ठीक से सुनें, बीच में न टोकें और न ही बहस करें। मरीज से एक बार में एक ही सवाल करें। बातचीत करते वक्त उन्हें ऐसा लगे कि आप उनमें दिलचस्पी ले रहे हैं और आपको उनकी चिंता है।

डॉक्टर के पास कब जाएँ 


अभी तक इस रोग को पूरी तरह ठीक करने के इलाज का पता नहीं चल पाया है। लेकिन शुरुआत में ही इसकी पहचान होने पर डॉक्टर को दिखाना जरूरी है। डॉक्टर इस रोग में दवाओं की मदद से इसके साइड इफेक्ट पर काबू पा सकते हैं। साथ ही वे मरीज की जीवनशैली में किये जानेवाले बदलाव के बारे में  भी पूरी जानकारी देते हैं। दवाओं की सहायता से इस रोग की प्रगति को शुरुआती अवस्था में ही धीमा किया जा सकता है। मरीज पर ध्यान रखें और यदि उसके व्यवहार में कोई बदलाव आता है तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें। जैसे ही रोग का स्तर बढ़ेगा उसका ट्रीटमंट भी बदलेगा। 

 घर में मरीज की देखभाल कैसे करें 


मरीज को सुबह के समय नहलाएं। कोशिश करें कि ज्यादा-से-ज्यादा काम मरीज खुद ही करें , मगर आप जबरदस्ती बिलकुल न करें, एक बार में मरीज को एक ही काम करने दें, याददाश्त को बढ़ाने के लिए आप घर में बोर्ड लगा सकते हैं। जैसे टॉयलेट के बाहर टॉयलेट का बोर्ड लगा सकते हैं आदि। सुबह के समय व्यायाम कराएं और दवाइयां समय पर देते रहें । यदि कोई बदलाव नजर आ रहा है, तो तुरंत चिकित्सक से सलाह लें। पौष्टिक और संतुलित आहार दें। खाने में विटामिन-इ युक्त खाने की मात्रा ज्यादा रखें, तो बेहतर होगा, विटामिन-इ अल्जाइमर (Alzheimer) में काफी कारगर है।

अल्जाइमर के लिए आयुर्वेदिक औषधियां (Ayurvedic medicine)

शंखपुष्पी अश्वगंधा, ज्योतिश्मती चूर्ण लाभदायक हैं। रोग अधिक होने पर स्मृति सागर रस तथा ब्राह्मणी वटी 1-1 गोली रात्रि में दें। आयुर्वेद पंचकर्म इसमें अत्यंत लाभकारी है। शिरोधार कम-से-कम 14 दिन अवश्य कराएं। आयुर्वेदिक रसायन, बादाम पाक, अश्वगंधारिष्ट चिकित्सक के परामर्श से लें। यह वृद्धावस्था का नाश करता है।

इसका न करें सेवन : अलकोल, तंबाकू, गांजा, भांग का सेवन न करें।

क्या खाएं : प्रतिदिन दूध, घी, बादाम, अर्जुन, मुलैठी का सेवन करें।

लिवर के लिए खतरनाक है ओवरइटिंग (overeating is dangerous for liver in hindi)

"यदि आप आवश्यकता से अधिक भोजन ग्रहण करते हैं तो सावधान हो जाइए, यह न केवल आपका मोटापा बढ़ाएगा बल्कि आपके लिवर को भी नुकसान पहुंचा सकता है।"


कुछ लागों को खाने का शौक होता है। यदि उन्हें पसंदीदा भोजन मिल जाय, तो वे आवश्यकता के अधिक खा लेते हैं। चाहे आपको पसंदीदा भोजन मुफ्त में ही क्यों न मिल रहा हो, पर हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि पेट आपका अपना है। ओवरइटिंग (Overeating) से केवल मोटापे की शिकायत हो सकती है बल्कि इसके कारण आपके शरीर के कई अंगो को भी नुकसान पहुंच सकता है।
Overeating dangerous for liver
खाने के शौकीन होना कोई गलत बात नहीं है, परंतु जरूरत से ज्यादा भोजन ग्रहण करना शरीर के लिए हानिकारक होता है। इस तरह जरूरत से ज्यादा भोजन करने से न केवल मोटापा बढ़ता है, या डायबिटीज का खतरा बढ़ जाता है, बल्कि यह शरीर के कई अन्य अंगों को भी नुकसान पहुंचा सकता है। ओवरइटिंग से हृदय, किडनी, फेफड़े और लीवर पर भी बुरा असर पड़ सकता है। इनमें से ओवरइटिंग आपके लिवर को अधिक प्रभावित करता है। यदि आपको डायबिटीज है और लिवर से संबन्धित समस्या है तो आपको ओवरइटिंग से बचना चाहिए क्योंकि यह आपके समस्या को बढ़ा सकती है। 

क्या  पड़ता है प्रभाव

ओवरइटिंग या अत्यधिक वसायुक्त (Fatty Foods) खाना  खाने से नॉन अल्कोहिक फैटी लिवर की बीमारी (Nonalcoholic Fatty Liver Disease) हो सकता है। लिवर के वाहिकाओं (vessels) में वसा (Fat) के जमा होने से लिवर अपना काम ठीक से नहीं कर पाता है और शरीर में विषेले पदार्थ बनने शुरू हो जाते है। मोटापा इसका एक प्रमुख कारण है। पेट पर वसा जमना भी इसका कारण हो सकता है। यदि आप मीट अधिक खा रहे हैं, तो लिवर की धमनियाँ (Artery) मोटी हो जाती है। इससे लिवर में पित्त पथरी (gallstones) बनना शुरू हो जाता है। इसके कारण पित्त (Bile) के निर्माण में भी बाधा आती है, जिससे वसा का पाचन सही तरीके से नहीं हो पाता है और वजन बढ़ने लगता है। वजन बढ़ने से कई अन्य समस्याएं होने लगती हैं।
कैसे कर सकते हैं बचाव

इस समस्या का सबसे प्रमुख बचाव है कि आप अपने के तरीकों में बदलाव लाए। आप अपने पसंदीदा भोजन खाएं, लेकिन एक सीमा के अंदर। यानी ओवरइटिंग न करें। आप उन व्यंजनों का सेवन कर सकते हैं जिसमे वसा कम होती है जैसे - स्किन्ड मिल्क और उससे बने ब्यंजन आदि। वैसे फूड जिनमें अनसेचुरेटेड फैट अधिक होता है, लिवर के सही तरीके से काम करने में मदद करते हैं, जबकि अधिक वसायुक्त भोजन समस्या को बढ़ा देती है। हमारे लिवर को सुरक्षित रखने के लिए दो भोजन के बीच उचित समय होना चाहिए। एक बार में अधिक खाने के बजाय आप थोड़ा-थोड़ा करके दिन में कई बार खाएं। इससे लिवर को अपना काम सही तरीके से कारने ने के लिए पर्याप्त समय मिल पाता है।  प्रतिदिन भोजन में हरी सब्जियों और फलों को शामिल करने से भी लिवर को फायदा होता है।

लिवर क्यों है महत्वपूण

  • लिवर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्याकिं आपको स्वस्थ रखने के लिए यह कई काम करता है।
  • यह वसा (Fat) और वसा में घुले हुए विटामिन को पचाने में मदद करता है। इसके लिए लिवर ही पित्त (Bile) को स्रावित करता है।
  • यह कार्बोहाहड्रेट के मेटाबॉलिज्म में मदद करता है और ब्लड ग्लूकोज लेवल को नियंत्रित रखता है।
  • यह प्रोटीन निर्माण में भी सहायता करता है। प्रोटीन से हमारे शरीर के अधिकतर हिस्से बने है। अतः यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है।
  • यह डीटॉक्सिफिकेशन में भी मदद करता है। अर्थात विषैले एवं गंदे पदार्थों को शरीर से बाहर करने के लिए किडनी में भेजता है।
  • लिवर विटामिन ए, बी12, डी, इ, के और अन्य मिनरल्स को भी स्टोर करने का कार्य करता है।

महिलाओं के मूत्राशय में होने वाले संक्रमण (इन्फ़ैकशन) है यूटीआई (Urinary Tract Infection)

यूटीआई (Urinary Tract Infection in hindi) क्या है?
यह महिलाओं के मूत्राशय में होने वाला संक्रमण (Infection) होता है जो आंतों में पाये जाने वाले 'इ कोलाइ' बैक्टीरिया के कारण होता है। यदि हम अपने गुप्तांगों की साफ-सफाई अच्छी तरह नहीं करते हैं तो आंतों में स्थित यह बैक्टीरिया (Bacteria) मलद्वार के रास्ते आकर मूत्रद्वार में प्रवेश कर जाता है और मूत्राशय को संक्रमित कर देता है। लगभग 35% महिलाएं अपने जीवन में कभी-न-कभी इस बैक्टीरिया से संक्रमित अवश्य होती है। 

मूत्र मार्ग से होते हुए यह बैक्टीरिया मूत्राशय को और धीरे-धीरे गुर्दे (किडनी) को भी संक्रमित कर देता है जो मरीज के लिए गंभीर स्थिति होती है। जब पेशाब के प्रति मि०ली० में 01 लाख जीवाणु हों, तो यह अवस्था यूटीआई (UTI) कहलाती है। प्रेग्नेंसी (Pregnancy) के दौरान होर्मोंस में बदलाव व बढ़ते गर्भाशय (Uterus) में कई बदलाव आते हैं जिससे भी यूटीआई (UTI) होने की संभावना बढ़ जाती है। अतः गर्भावस्था में साफ-सफाई का विशेष ध्यान देना चाहिए। मुख्यतः 2% से 11% गर्भवती महिलाओं (Pregnant women) में यह संक्रामण (infection) होता है। गंभीर अवस्था में इसका इलाज एंटीबायोटिक की सहायता से किया जाता है।
यूटीआइ के लक्षण (symptoms of Urinary Tract Infection in hindi)
  • पेशाब बार-बार होना
  • बुखार आना
  • पेशाब में जलन होना
  • पेशाब तीव्रता से लगना और उसे रोक न पाना
  • पेट के निचले हिस्से में तेज दर्द होना
  • पेशाब में दुर्गंध, पीलापन, खून दिखना, यौन संपर्क में पीड़ा आदि

यदि गर्भवती महिला को यूटीआई हो जाए तो जच्चे और बच्चे पर असर :

  • समय से पहले जन्म
  • कमजोर बच्चा
  • मां में उच्च रक्तचाप
  • एनिमिया
  • गर्भाशय में संक्रमण

प्रेग्रेंसी में गर्भाशय और पेशाब की नियमित जांच कराएं। शुगर और प्रोटीन की भी जांच करवाएं, मूत्र में बैक्टीरिया अधिक होने पर इलाज जरूरी है।

यदि आपको शुरुआती समय में इस संक्रामण का पता न चले या यदि आप इसकी अनदेखी कर देते हैं तो संक्रामण गुर्दे (किडनी) तक पहुँच जाती है। किडनी (Kidney) में संक्रामण पहुँचने पर आपको निम्नांकित लक्षणों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए और तुरंत डॉक्टर की सलाह लें। 
  • शरीर मे कंपकपी लगना
  • तेज बुखार आना
  • उल्टी होना
  • पसली के निचले हिस्से में दर्द होना

अगर आप कुछ छोटी-छोटी बातों को अपने दिनचर्या में शामिल करतें हैं तो यूटीआई से आप अपना बचाव कर सकते हैं:

  • पानी अधिक पिएं
  • कॉफी, अल्कोहल, धूम्रपान का सेवन न करें
  • मूत्र द्वार की साफ-सफाई का ध्यान रखें
  • पीरियड के समय नैपकिन को समय से बदले
  • पेशाब देर तक न रोकें
  • यौन संपर्क के तुरंत बाद पेशाब करें


यूटीआई होने के ये मुख्य कारण हो सकते हैं:
  • प्रेग्नेंसी में शारीरिक परिवर्तन से
  • किडनी स्टोन
  • शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता का कम होना, जैसे-डायबिटीज, एनिमिया, एड्स आदि होने पर
  • पेशाब जब पूरी तरह मूत्राशय से खाली न हो पाये, जैसे-मेनोपॉज, स्पाइनल कार्ड इज्यूरी के कारण
  • कैंसर की दवाइयों के सेवन से
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कार्डियक अरेस्ट और हार्ट अटैक में क्या अंतर है (Difference between Cardiac arrest and Heart attack in hindi)

अक्सर लोग कार्डियक अरेस्ट (Cardiac Arrest) और हार्ट अटैक (Heart Attack) को एक ही अवस्था समझ लेते हैं पर ऐसा नहीं है। दोनों ही अवस्थाएं अलग-अलग होती है। प्रस्तुत है कार्डियक अरेस्ट और हार्ट अटैक के अंतर (Difference between Cardiac arrest and Heart attack in hindi)।
क्या है कार्डियक अरेस्ट (What is Cardiac arrest in hindi)

शरीर में किसी समस्या के कारण जब हार्ट अचानक काम करना बंद कर देता है तो इसे कार्डियक अरेस्ट कहते हैं। यह मुख्या रूप से एक इलेक्ट्रिकल समस्या (Electrical problem) है जिससे दिल का धड़कन (Heart beat) अनियमित हो जाती है और हार्ट खून को अच्छी तरह पम्प नहीं कर पता है। परिणामस्वरूप, ब्लड शारीर के महत्वपूर्ण अंग जैसे ब्रेन, लंग आदि तक अच्छी तरह नहीं पहुँच पता है।

कार्डियक अरेस्ट में क्या होता है?

इसमें अचानक ही व्यक्ति बेहोस हो जाता है और तुरंत ही इलाज (treatment) ना हो तो व्यक्ति की मौत भी हो सकती है। अतः इस अवस्था में व्यक्ति का तुरंत ट्रीटमेंट शुरू होना आवश्यक है।

क्या करना चाहिए?

कार्डियक अरेस्ट से लोगों को बचाया जा सकता है यदि मरीज को एक मिनट के अंदर (within a minute) ट्रीटमेंट उपलब्ध करा दिया जाये। ऐसी अवस्था में मरीज को तुरंत सीपीआर (CPR) देना चाहिए और एंबुलेंस को बुला लेना चाहिए। यदि ऑटोमेटेड एक्सटर्नल डिफाइब्रिलेटर है, तो उसे भी जल्द-से-जल्द देना चाहिए। यदि दो लोग मौजूद हैं, तो एक एंबुलेंस को कॉल करे और दूसरा सीपीआर उपलब्ध कराये।

क्या है हार्ट अटैक? (What is Heart attack in hindi?)

हार्ट अटैक तब होता है जब रक्त संचार (Blood circulation) में अवरोध आती है।  अवरुद्ध आर्टरी के कारण ह्रदय के किसी हिस्से में ऑक्सीजन युक्त रक्त नहीं जा पाता है। यदि ब्लॉकेज को जल्द नहीं खोला जाये, तो हार्ट का वह हिस्सा ख़राब हो सकता है या आर्टरी नष्ट हो सकती है। 

हार्ट अटैक में क्या होता है?

इसके लक्षण मरीज में अचानक उभरते हैं, जिससे छाती या शरीर के ऊपरी हिस्से में परेशानी शुरू होती है। मरीज को सांस फूलने और उल्टी जैसी शिकायत शुरू होती है।  कभी-कभी इसके लक्षण धीरे-धीरे दिखते हैं और हार्ट अटैक से घंटे भर, एक दिन या हफ्ते भर पहले से दिखने लगते हैं। इसमें हृदय धड़कना (Heart Beat) बंद नहीं होता है। परंतु इसमें भी इलाज में जितनी देरी होती है, हार्ट उतना ही डैमेज होता है।

(महिलाओं में हार्ट अटैक के लक्षण पुरुषों से भिन्न हो सकते हैं।)

क्या करना चाहिए?
यदि जरा भी हार्ट अटैक के लक्षण दिखें, तो बिना देरी किये एमरजेंसी एंबुलेंस को फोन करें या मरीज को डॉक्टर के पास ले जाएं। इसमें एक-एक मिनट कीमती होता है। एमरजेंसी के स्टाफ आते के साथ ही उपचार शुरू कर देते हैं। उसके बाद एंबुलेंस में हॉस्पिटल ले जाते है।     

इन दोनों के बीच क्या संबंद है?

अधिकतर हार्ट अटैक के साथ कार्डियक अरेस्ट के लक्षण नहीं होते हैं। लेकिन अधिकतर कार्डियक अरेस्ट हार्ट अटैक के साथ हो सकता है। हार्ट की अनियमित धड़कन (Irregular heartbeat भी इसका प्रमुख कारण है।
Cardiac arrest and Heart attack

रक्तदान, रक्तदान से लाभ, रक्त के प्रकार, रक्त के कार्य तथा रक्तदान आप कहाँ कर सकते हैं

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट (2012) के मुताबिक भारत में अभी हर वर्ष करीब सवा करोड़ यूनिट ब्लड की जरूरत है, जबकि 90 लाख यूनिट ही उपलब्ध हो पाता है। कई लोग इसके अभाव में दम तोड़ देते हैं। रक्तदान (Blood Donation) के समय ज्यादातर लोगों को इससे होनेवाली कमजोरी का भय होता है, जबकि हकीकत यही है कि रक्तदान (Raktdaan) के बाद हमारा शरीर 24 घंटे में ही उस रक्त के तरल भाग की पूर्ति कर लेता है। यह सेहत के लिए कई तरह से लाभदायक भी है। 
रक्तदाता के लाभ (Raktdaan ke labh) क्या है: रक्तदान करने से शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है, हालांकि यह भ्रांति अवश्य है कि रक्तदान (Blood donate) करने से कमजोरी आती है। कमजोरी कुछ घंटो के लिए आ सकती है। बाद में सबकुछ सामान्य हो जाता है। वहीं रक्तदान करने के कुछ फायदे (Raktdaan karne ke fayde) भी हैं, जो इस प्रकार हैं -  
  • आयरन को रखता है संतुलित : स्वस्थ शरीर के लिए आयरन जरूरी है, क्योंकि यह विभिन्न अंगो में ऑक्सीजन पहुंचता है। इसकी अधिक मात्रा लिवर, हार्ट और पैंक्रियाज में इकट्ठी हो जाती है, जिससे सिरोसिस, हार्ट डिजिज, हाइबीपी और डायबिटीज का खतरा बढ़ता है। रक्तदान से आयरन शरीर से बाहर निकलता है। 
  • होती है हेल्थ स्क्रीनिंग : रक्तदान से पहले डॉक्टर डोनर की स्वास्थ्य जांच करते हैं, जिसमें हार्ट बीट, बीपी, कोलेस्ट्रोंल, हीमोग्लोबिन की जांच की जाती है। रोग होने पर इसका पता प्रारंभित स्तर पर चल जाता है। 
  • कैलोरी बर्न करता है : इससे कैलोरी बर्न करने और कोलेस्ट्रॉल घटाने में भी मदद मिलती है। रक्तदान से रक्त कोशिकाओं की संख्या कम हो जाती है। भरपाई के लिए शरीर बोन मैरो को नये आरबीसी बनाने के लिए प्रेरित करता है। इससे नयी कोशिकाएं बनती है और हमारा सिस्टम रिफ्रेश हो जाता है। रक्तदान करने से हृदय रोग में पाँच प्रतिशत तक की कमी आती है।   
रक्तदान, रक्तदान से लाभ, रक्त के प्रकार
रक्तदान (Blood  donation) को बनाएं जीवन का हिस्सा : अक्सर देखा जाता है कि लोग जरूरत पड़ने पर या इमरजेंसी में ही रक्तदान करते हैं। ऐसा इसलिए भी किया जाता है, क्योंकि कोई अपना या फिर परिचित को रक्त की जरूरत होती है। वहीं दूसरी ओर कई जरूरतमंद समय पर रक्त न मिलने से मौत के मुंह में समा जाते हैं। इसलिए रक्तदान को रूटीन का हिस्सा बनाएं और नियमित रूप से रक्तदान करें (Raktdaan karen)। नियमित रूप से रक्तदान करने पर अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में ब्लड स्टॉक रह सकता है और जरूरत पड़ने पर अनेक मरीजों को बचाया जा सकता है। पुरुष साल में चार बार और महिलाएं साल में तीन बार रक्तदान कर सकती हैं। 
शरीर में रक्त के कार्य
  • सेल्स और टिश्यू तक ऑक्सीजन की सप्लाइ करता है।
  • जरूरी न्यूट्रिएंट्स जैसे - एमिनो एसिड, फैटी एसीड्स, ग्लूकोज आदि की सप्लाइ भी करता है।
  • शरीर के विभिन्न अंगों में मौजूद कार्बन डाइ ऑक्सीजन, यूरिया, लेक्टिक एसिड को बाहर निकालता है।
  • रक्त में मौजूद व्हाइट ब्लड सेल्स (डब्ल्यूबीसी) में एंटीबॉडीज होते है, जो शरीर को इन्फेक्शन से बचाता है।
  • यह शरीर में पीएच लेवल और तापमान को नियंत्रित रखने का कार्य करता है।
  • रक्त में मौजूद प्लेटलेट्स दुर्घटना के बाद रक्त का थक्का जमाने में मददगार होते है, जो रक्त को बहने से रोकते हैं।

रक्तदान आप कहां कर सकते हैं 
रक्तदान किसी भी लाइसेंस युक्त ब्लड बैंक में कर सकते हैं। यह सुविधा सभी जिला-चिकित्सालयों में उपलब्ध है। मान्यता प्राप्त एजेंसियों जैसे-रोटरी क्लब, लायंस क्लब द्वारा रक्तदान शिविरों का आयोजन भी होता रहता है। रक्तदान (Blood Donation) के बाद रक्तदाता को डोनर कार्ड मिलता है, जिससे वह रक्तदान की तिथि से 12 महीने तक जरूरत पड़ने पर स्वयं या परिवार के लिए ब्लड बैंक (Blood Bank) से एक यूनिट रक्त (per unit blood) ले सकता है।  

वजन के अनुसार लिया जाता है रक्त : आपके वजन के आधार पर खून लिया जाता है। यदि वजन 60 किलो से कम है, तो शरीर से 350 ml रक्त लिया जाता है। वहीं यदि वजन 60 किलो से ज्यादा है, तो शरीर से 450 ml रक्त लिया जाता है। रक्तदान के दौरान जितना खून निकाला जाता है, वह शरीर 21 दिनों के अंदर फिर से बना लेता है। 
चार तरह के ब्लड ग्रुप (Blood Group) होते हैं : ब्लड को दो एंटीजेन (ए और बी) की उपस्थिति और अनुपस्थिति के आधार पर चार ग्रुपों में बांटा गया है:-

ग्रुप ए: इस ग्रुप के ब्लड में रेड सेल्स पर ए एंटीजन होता है, जबकि इसके प्लाज्मा में बी एंटीबॉडी पाया जाता है।

ग्रुप बी: इस ग्रुप के ब्लड में रेड सेल्स पर बी एंटीजेन होता है, जबकि इसके प्लाज्मा में ए एंटीबॉडी रहता है।

ग्रुप एबी: इसमें ए और बी, दोनों एंटीजेन होते हैं। प्लाज्मा में एंटीजेन नहीं होता है। एबी पॉजिटिव ग्रुपवाले किसी से भी ब्लड ले सकते हैं।

ग्रुप ओ: रेड सेल्स पर एंटीजेन नहीं होता। प्लाज्मा पर ए और बी एंटीजेन होते हैं। ओ नेगेटिव ग्रुपवाले किसी को भी ब्लड दे सकते हैं।

ग्रुप एचएच: यह दुर्लभतम प्रकार है, इस ब्लड ग्रुपवाले लोग किसी को भी ब्लड दे सकते हैं, लेकिन खुद जरूरत पड़ने पर सिर्फ इसी ग्रुप का ब्लड ले सकते हैं। 

कब होती है रक्त की जरूरत : अधिकांश बड़े ऑपरेशनों और पार्ट्स ट्रांसप्लांटेशन में भी रक्त की जरूरत होती है, थैलेसीमिया, कैंसर, डायलिसिस आदि रोगों के वक्त भी रक्त की जरूरत होती है। दुर्घटना होने पर खून ज्यादा बह जाये, तो भी रक्त की जरूरत पड़ती है।
कौन कर सकता है रक्तदान (Who can donate blood in hindi?)
  • 18 से 60 वर्ष के लोग दे सकते हैं ब्लड
  • दो ब्लड डोनेशन के बीच रखें तीन महीने का अंतर
  • जिनका वजन 45 किलो है, वे 350 एमएल और 60 किलो वजनवाले लोग 450 एमएल ब्लड डोनेट कर सकते हैं।
  • एचआइवी पॉजिटिव और एसटीडी से ग्रसित लोग ब्लड नहीं दे सकते।
  • जिन लोगों का वजन अचानक घट रहा हो, सूजन हो या हल्का बुंखार लगातार रहे, वे न करें।
  • वैसे लोग जो एंटीबायोटिक, स्टेरॉयड या अल्कोहल ले रहे हों, उन्हें ब्लड डोनेट करने से पहले कुछ समय संबंधी नियमों का पालन करना होता है।
  • प्रेगनेंट, ब्रेस्ट फीडिंग करानेवाली महिलाएं और मासिक के समय महिलाएं ब्लड डोनेट नहीं कर सकती हैं।
  • हृदय रोगी या हाइबीपीवाले लोग ब्लड डोनेट नहीं कर सकते, हेपेटाइटिस बी या सी, लेप्रोसी और टीबी के मरीज डोनेट नहीं कर सकते।

किन स्थितियों में रक्तदान नहीं करना चाहिए (When we should not donate blood?)
  • यदि वायरल संक्रमण है, तो रक्तदान न करें, क्योंकि इससे रक्त के माध्यम से संक्रमण रक्त लेनेवाले व्यक्ति में जाने की आंशका रहती है।
  • किडनी, हृदय, दिमाग, फेफड़े, लिवर आदि से संबंधित कोई भी बीमारी हो, तो रक्तदान नहीं करना चाहिए।
  • यदि थायरॉयड रोग है, तो रक्तदान न करें।
  • यदि आपको स्वयं कभी रक्त की जरूरत पड़ी हो, तो कम-से-कम एक साल तक रक्तदान न करें।
  • यदि शरीर पर टैटू बनवाया हो, तो टैटू बनवाने के छह माह बाद रक्तदान कर सकते हैं।
  • यदि हीमोग्लोबिन का लेवल 18 ग्राम/ डीएल से ऊपर हैं।
  • शूगर, हाइपरटेंशन आदि से ग्रस्त मरीज भी ब्लड डोनेट नहीं कर सकते हैं।

रक्तदान के दौरान इन बातों का रखें ध्यान 
  • रक्तदान टेंशन फ्री होकर करें।
  • सुबह का नाश्ता करने के लगभग एक-डेढ़ घंटे के बाद रक्तदान करें।
  • सभी रोगों की जानकारी डॉक्टर को दें।
  • रक्तदान करने के बाद पाँच से दस मिनट तक आराम करना जरूरी होता है।
  • रक्तदान करने के बाद नॉर्मल खाना खाएं।
  • रक्तदान करने के बाद आप अगले एक दिन तक जिम नहीं जा सकते।
  • रक्तदान करने के बाद 24 घंटे तक धूम्रपान व शराब का सेवन न करें।
  • एक बार रक्तदान कर दिया है, तो तीन माह बाद ही दोबारा रक्तदान कर सकते हैं।
क्या ब्लड डोनेट करते समय टेस्ट जरूरी है? (Test before blood donation)
हां, ब्लड डोनेट करने से पहले ब्लड टेस्ट जरूरी है अन्यथा यदि आपको कोई रोग होगा, तो वह मरीज को भी हो जायेगा। इसमें हेपेटाइटिस, एचआइवी आदि प्रमुख टेस्ट हैं। इसके अलावे आजकल एचटीएलवी (एंटीबॉडी टू ल्यूकेमिया वायरस) का टेस्ट भी जरूरी है। यह टेस्ट ब्लड कैंसर के लिए होता है। यदि ब्लड कैंसर के मरीज का ब्लड सामान्य व्यक्ति को चढ़ा दिया जाये, तो उसे भी ब्लड कैंसर होने का खतरा होता है। 

क्या ब्लड डोनेशन से रिएक्शन हो सकता है?
यदि रोगी को डोनर का ब्लड सूट नहीं करता है, तो उससे रिएक्शन हो सकता है। इससे खुजली आदि की समस्या हो सकती है। यहां एक बात और ध्यान रखना जरूरी है कि बेहोश व्यक्ति को ब्लड चढ़ाने पर यदि कोई रिएक्शन होता है, तो वह पता नही चल पाता है लेकिन इसके भी कुछ लक्षण सामने आते हैं, जैसे-धड़कनों का बढ़ जाना, पेशाब की मात्रा का कम हो जाना, ब्लड प्रेशर का लो हो जाना आदि। समय पर पता न चलने पर रोगी की मृत्यु भी हो सकती है। 

क्या ब्लड ग्रुप का आरएच नेगेटिव रेयर होता है?
हाँ, पॉजिटिव ग्रुप आसानी से उपलब्ध हो जाता है, जबकि नेगेटिव के मिलने में परेशानी होती है।

ब्लड बैंक में जमा ब्लड में हीमोग्लोबिन कम होता है?
रेड ब्लड सेल्स का लाइफ 120 दिनों का होता है। उसके बाद वह कम होने लगता है, इसलिए ट्रांस्फ्यूजन के लिए फ्रेश ब्लड का ही प्रयोग होता है। कई रोगों में प्लेटलेट्स का ट्रांस्फ्यूजन भी होता है। वह भी फ्रेश किया जाता है क्योंकि इसकी लाइफ 5 दिन ही होती है।  

साइंस और टेकनोलॉजी दिन-प्रतिदिन तरक्की करने के बावजूद अभी तक वैज्ञानिक कृत्रिम खून नहीं बना पाये हैं। यह केवल शरीर में ही बन सकता है, इसलिए गंभीर बीमारी से ग्रस्त होने के बाद, विभिन्न सर्जरी या फिर एक्सीडेंट में गंभीर रूप से घायल होने के बाद रक्त की जरूरत होती है, तब ब्लड डोनर यह रक्त देता है। समय पर रक्त मिलने से अधिकतर मरीजों की जन बच जाती हैं। वहीं कई बार रक्त न मिलने से रोगी की मृत्यु भी हो जाती है। वैसे कई अस्पताल और सामाजिक संस्थान समय-समय पर रक्तदान के लिए कैंपों का भी आयोजन करते हैं, जिनमें इकट्ठा हुआ रक्त अस्पताल के माध्यम से जरूरतमंद को दिया जाता है या ब्लड बैंक में रखा जाता है। प्रत्येक रक्तदान तीन लोगों की जान बचा सकता है, क्योंकि जो रक्त दान किया जाता है, उसमें तीन अलग-अलग रक्त कण (आरबीसी, प्लाज्मा और प्लेटलेट्स) होते हैं, जो तीन अलग-अलग मरीजों के काम आ सकता है, इसलिए एक बार रक्तदान करके तीन जिंदगियां बचायी जा सकती हैं। प्लाज्मा को एक साल और प्लेटलेट्स को पाँच दिनों तक रखा जा सकता है। इस अवधि के बाद यह खराब हो जाता है।  

चने में विद्यमान पोषक तत्व और उनका हमारे शरीर में होने वाले फायदे

चना (Gram) भारतीय खान-पान के प्रमुख अनाजों में से है। इसे शक्तिवर्धक अनाज (Enhancing grain) माना जाता रहा है। यह तो सभी जानते हैं कि यह न सिर्फ पाचन को सही रखता है बल्कि हृदय को भी सुरक्षित रखता है। चना का प्रयोग भारत में सदियों से हो रहा है। इसे सीधे प्रयोग करने के अलावा दाल और उससे बने उत्पादों के रूप में भी होता है। इसका स्वाद तो अलग और अनोखा होता ही है साथ ही इसका प्रयोग ताकत बढ़ाने के लिए भी किया जाता रहा है। इसे अंकुरित कर के भी खाया जाता है ऐसे कई कारण हैं जिनके कारण चना को स्वास्थ्य के लिए बेहतर (Gram is good for health) माना जाता है। प्रस्तुत हैं आठ कारण जिनसे चना स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। 
Benefits of gram
1. वजन घटाने (Weight loss) के लिए : चना को प्राकृतिक रूप से वजन घटाने में सहायक माना जाता है। ऐसा इसमें फाइबर कंटेंट (Fiber content) कि अधिकता के कारण होता है। ये न सिर्फ आपके भूख को कंट्रोल करते हैं बल्कि लंबे समय तक आपके पेट को भरा भी रखते हैं। शाकाहारी (Vegetarian) लोगों के लिए यह प्रोटीन (Protein) का भी बेहतर स्त्रोत है। इससे आपके वजन को नियंत्रित (Weight management) करने में भी मदद मिलती है। 

2. शरीर में शक्ति (Power) और रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immunity) बढ़ाता है: चना में खनिज लवण (Minerals) के रूप में मैगनिज काफी मात्रा में होता है। इसके अलावा इसमें जरूरी पोषक तत्व जैसे थायमीन, मैंगीशियम और फॉस्फोरस भी पाया जाता है। मैंगीशियम शरीर में ऊर्जा के उत्पादन में प्रमुख भूमिका निभाता है। 
3. ब्लड शुगर लेवल (Blood Sugar Level) सही रखता है : चना का ग्लाइसेमिक इंडेक्स लो होता है। इस कारण से यह डायबिटीज के रोगियों के लिए भी काफी फायदेमंद होता है। इसके कारण  ब्लड ग्लूकोज बहुत धीमे-धीमे बढ़ता है। इसमें सोंल्यूबल फाइबर, हाइ प्रोटीन और आयरन होता है। ये तत्व भी ब्लड शूगर लेवल को मैनेज करने में मददगार हैं।

4. महिलाओं में होंर्मोंन का लेवल (Hormones level) नियमित रखता है। इससे ब्रेस्ट कैंसर (Breast cancer) और ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा कम हों जाता है। 

5. एनिमिया होने से बचाता है : चना में आयरन इतनी मात्रा में मौजूद होता है कि यह शरीर के आयरन कि जरूरत को आसानी से पूरा करता है और एनिमिया होने से रोकता है। बच्चे और महिलाओं के एनिमिया का खतरा अत्यधिक होता है। इसी कारण से उन्हें नियमित चना का सेवन करने के लिए कहा जाता है।   

6. रक्तचाप (Blood pressure) नियंत्रित करता है: चना रक्त वाहिकाओं (blood vessels) को सामान्य करता है, जिससे हाइपरटेंशन का खतरा कम होता है। इस दलहन में पोटैशियम और मैग्नीशियम भी होता है, जो शरीर में इलेक्ट्रोलाइट्स को भी बैलेंस करता है। 

7. पाचन संबंधी समस्याओं से बचाता है : फाइबर की अधिक मात्रा के कारण यह पाचन तंत्र (Digestive System) और आंत को भी बेहतर बनाये रखता है। इससे पाचन संबंधी समस्याएं नहीं होती हैं। इसके पोषक तत्व कब्ज को भी दूर करता हैं। 

8. हृदय संबंधी रोगों (heart diseases) से दूर रखता है: विशेषज्ञों के अनुसार काला चना रोज खाने से कई प्रकार के हृदय संबंधी समस्याओं को कम कर देता है। इसमें मैग्नीशियम और फोंलेट भी काफी मात्रा में होते हैं जो कोलेस्ट्रॉल को कम करने का कार्य करते हैं। 

काजू का सेवन आपके हृदय के लिए है लाभकारी, जाने काजू के फायदे

भारतीय समाज में जब भी सेहत की बात आती है, तो बड़े-बुजुर्ग काजू-बादाम (Cashew nut) खाने की सलाह देते हैं और यह बात काफी हद तक सही भी है। काजू न सिर्फ शरीर को स्वस्थ रखता है, बल्कि कई रोगों से भी बचाता है। काजू का प्रयोग हमेशा से भारतीय किंचन में किया जाता रहा है। यह न सिर्फ भोजन के स्वाद को बढ़ाता है बल्कि इसे स्वास्थ्य (Health) के लिहाज से भी बेहतर माना जाता रहा है। इसमें ऐसे कई पोषक तत्व होते हैं, जो मेटाबोलिज्म को बेहतर बनाते हैं और हृदय रोगों के खतरे को भी कम करते हैं, जिससे हृदय स्वस्थ (Healthy heart) रहता है।
 Benefits-of-Cashew-nut
 ये हैं इसके फायदे 

हृदय को रखता है स्वस्थ :- इसमें स्वास्थ्य के लिए अच्छे फैट क्री प्रचुर मात्रा होती है और कोलेस्ट्रॉल नगण्य होता है। इससे ब्लड कोलेस्ट्रॉल कम होता है और ट्राइग्लिसराइड हदय को स्वस्थ बनाते हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि फैट कम लेने से शरीर स्वस्थ रहता है, जबकि यह सही नहीं है। हमारे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हर प्रकार के पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है और फैट भी उनमें से एक है। लेकिन फैट स्वास्थ्यवर्धक स्रोतों से आना चाहिए। काजू भी फैट का एक स्वास्थ्यवर्धक स्रोत है।

शरीर को बनाता है मजबूत:- इसमें मैग्रीशियम होता है जो हड्डियों को मजबूत बनाता है, मांसपेशियों और नर्व की कार्यप्रणाली को सही रखता है. कैल्सियम को हड्डियों में सही प्रकार से अवशोषित करने के लिए हमारे शरीर को लगभग 300-750 मिलीग्राम मैरनीशियम की जरूरत होती है। 

ब्लड प्रेशर को करता है कंट्रोल:- काजू में सोडियम कम और पोटैशियम अधिक होता है, जो ब्लड प्रेशर को नियंत्रण में रखता है। यदि शरीर में सोडियम की मात्रा अधिक होती हैं तो शरीर को पानी की जरूरत भी अधिक पड़ती है। इससे ब्लड की मात्रा भी बढ़ती है और ब्लड प्रेशर भी बढ़ता है। 

कैंसर का खतरा होता है कम:- काजू में सेलेनियम और विटामिन इ जैसे एंटी ऑक्सीडेंट्स होते हैं, जो शरीर को फ्री रैडिकल्स से बचते हैं। इससे इम्युनिटी बढ़ती है और कैंसर का खतरा कम होता है। इसमें जिंक भी होता है, जो इंफेक्शन से बचाया है। 
शारीरिक प्रक्रियाओं को रखता है सही:- इसमें कॉपर की उपयुक्त मात्रा होती है। यह एंजाइम की सक्रियता, हॉर्मोन के निर्माण, ब्रेन फंक्शन को सही रखने में सहायता करता है। 

किन्हें नहीं खाना चाहिए
इसे कोई भी खा सकता है लेकिन जिन्हें इससे एलर्जी हो या माइग्रेन की समस्या हो उम्हें इससे बचना चाहिए इसमे काफी केलोरी होती है जो वजन बढ़ा सकता है। अतः मोटे लोगों को भी इसे खाने से बचना चाहिए। यदि किसी को काजू से एलर्जी हो, तो इससे उल्टी, डायरिया, स्किन रैशेज और सांस लेने में परेशानी हो सकती है यदि ऐसी समस्या होती है तो इसे खाना छोड़ दें और तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें ।

किडनी को स्वस्थ कैसे रखें, किडनी रोगों के लक्षण, किडनी ट्रांसप्लांट, किडनी फेल्योर एवं डायलिसिस क्या है

हम जाने अनजाने कई ऐसी बातें अपने व्यवहार में लाते हैं, जिनसे किडनी को नुकसान (Kidney ko nuksan) पहुचता है। मसलन, डॉक्टर की तमाम सलाहों के बावजूद लोग जरुरत भर पानी नहीं पीते, जो चुपचाप किडनी को डैमेज करता (Kidney ko damage karta) जाता है। जानिए किन छोटी-छोटी बातों का आपको रखना है पूरा ख्याल। किडनी के डैमेज होने केे लिए हम सिर्फ बड़े कारणों को ही जिम्मेवार मानते हैं। लेकिन वास्तव में हमारी जीवनशैली में ही कई ऐसी गलत आदतें होती है, जिनसे किडनी डैमेज (Kidney damage) हो जाते है। इन छोटी बातों का ध्यान रख कर भी किडनी को स्वस्थ रखा (Kidney ko svasth rakhana) जा सकता है।
Kidney
क्या है किडनी रोगों के लक्षण (Symptoms of kidney disease in hindi) :-
किडनी खराब तब मानी जाती है जब वह अपना कार्य ठीक प्रकार से न कर पाये। ऐसे में प्रारंभिक दौर में शरीर में कई प्रकार के लक्षण देखने को मिलते हैं, जिनमे से मुख्या लक्षण (Kidney rogon ke lakchan) इस प्रकार है:-
  • सुबह के समय चेहरे पर ज्यादा सूजन होना। सूजन दिन भा रहती है, लेकिन सुबह में अघिक होती है।
  • कमजोरी और थकान महसूस होना
  • भूख न लगना और उल्टी, जी-मिचलने जैसी समस्या होना।
  • घुटनों में सूजन।
  • शरीर में खून की कमी होना।
  •  कमर के नीचे दर्द रहना।
  •  दवा खाने के बाद भी बीपी का कंट्रोल न होना।
पांच प्रकार का होता है किडनी फेल्योर (Types of Kidney Failure in hindi)

एक्यूट प्री-रीनल किडनी फेल्योर (Acute Pre-renal Kidney Failure):- यह किडनी में खून (Kidney me khoon) की पर्याप्त मात्रा नहीं जाने  से होता है। प्रयाप्त मात्रा में खूंन न मिलने से किडनी खून से विषैले तत्वों को बाहर नहीं निकाल पाता है। इसे दवाइयों से ठीक किया जा सकता है। 

एक्यूट इंट्रिन्सिक किडनी फेल्योर (Acute Intrinsic Kidney Failure):- यह एक्सीडेंट या किसी अन्य वजह से किडनी के क्षतिग्रस्त होने से होता है। शरीर से अत्यधिक खून बह जाने से भी होता है . इसके होने का मुख्य कारण किडनी में ऑक्सीजन की कमी (Kidney me oxygen) होती है।

क्रॉनिक प्री-रीनल किडनी फेल्योर (Chronic Pre-renal Kidney Failure):- एक्यूट प्री-रीनल किडनी फेल्योर के ट्रीटमेंट के बाद भी समस्या लंबे समय तक बनी रहती है और ठीक नहीं होती, तब इसे क्रॉनिक प्री-रीनल किडनी फेल्योर कहते हैं। इसमें किडनी पूरी तरह खराब हो जाता है।

क्रॉनिक इंट्रिन्सिक किडनी फेल्योर (Chronic Intrinsic Kidney Failure):- लंबे समय तक एक्यूट इंट्रिन्सिक किडनी फेल्योर ठीक न होने पर क्रॉनिक इंट्रिन्सिक किडनी फेल्योर हो जाता है।

क्रॉनिक पोस्ट-रीनल किडनी फेल्योर (Chronic Post-Renal Kidney Failure):- यह पेशाब को रोकने के कारण होता है। ऐसा करने से यूरिनरी ट्रेक्ट किडनी पर प्रेशर डालता है, जिससे किडनी डैमेज होने की आशंका होती है।

किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत कब पड़ती है (Kidney Transplant in hindi)

किडनी जब दवाइयों या अन्य तरीके से ठोक नहीं हो पाता है, तब अंतिम उपचार किडनी ट्रांसप्लांट (Kidney transplant) है। इसके लिए किडनी डोनर की जरूरत होती है। ट्रांसप्लांट के 90% मामले सफल रहते हैं और 4-5 व्र्ष तक सही तरीके से कार्य करते हैं। ट्रांसप्लांट के साइड इफेक्ट (Kidney transplant ke side effect) भी है। इसमें सर्जरी के बाद मरीज को इम्यूनोस्प्रेसिव ड्रग दिया जाता है, ताकि नये किडनी को शरीर रिजेक्ट न करें।  लेकिन इससे शरीर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कोई भी व्यक्ति जिसका ब्लड ग्रुप मरीज से मिलता हो, किडनी डोनर हो सकता है। डोनर की आयु 18 से 55 साल के बीच होनी चाहिए। डोनर को भी एक महीने तक डॉक्टर की देख रेख में रहना पड़ता है।

ट्रांसप्लांट के बाद रखें ध्यान (Transplant ke bad kya dhyan rakhen)

  • सर्जरी के बाद इंफेक्शन होने की आशंका बढ़ जाती है, ऐसे में सफाई के लिहाज से सावधानी बरतने की जरूरत है। अत: हाइजीन का ख्याल रखें।
  • सर्जरी के बाद पेट दर्द, बुखार, जुकाम आदि होने पर तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें। सेल्फ मेडिकेशन न करें।सलाह के अनुसार लें।
  • भोजनं समय पर ले।
क्या है डायलिसिस:- (What is dialysis in hindi)

डायलिसिस ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें किडनी का कार्य मशीन करती है।मरीज की किडनी फेल हो जाये ओर तुरंत ट्रांसप्लांट संभव नहीं हो, तो कुछ समय के लिए मरीज को डायलिसिस पर रखा जाता है। डायलिसिस के दौरान मरीज को काफी परहेज रखना होता है। डायलिसिस किडनी फेल्योर का ट्रीटमेंट नहीं होता, बल्कि अस्थायी किडनी का कार्य करता है।
इन्हें भी देखें: किडनी के पथरी (Kidney stone) की जांच कैसे होती है?
ऐसे रखें किडनी को स्वस्थ (How  to Keep your kidney healthy)


पानी की कमी:- आज-कल हमारी जीवन शैली कुछ ऐसी हो गई है कि हम खुद के लिए भी समय निकाल नहीं पाते है। काम  में हम इतना व्यस्त हो जाते हैं कि शरीर के लिए जरूरत भर पानी भी नहीं पी पाते हैं। इसके कारण शरीर की सफाई ठीक से नहीं हो पाती और किडनी डैमेज हो जाता है। कभी-कभी इससे किडनी में स्टोन भी बन जाते है। इन समस्याओं से बचने के लिए तीन से चार लीटर पानी रोजाना पीने कि आदत डालना जरूरी है।

नमक:- कई लोगों को हम अक्सर देखते हैं कि खाना खाने के पहले वे अपने भोजन में अतिरिक्त नमक का इस्तेमाल करते हैं। आपको यह सामान्य लगता होगा। यदि आपको इस तरह कि आदत है तो इससे बचे। क्योंकि इस छोटी सी आदत से आपके किडनी पर बुरा  प्रभाव पड़ता है। नमक में सोडियम होता है। यह ब्लड प्रेशर के बढ़ने का बड़ा कारण है, जो समय के साथ किडनी को भी डैमेज करता है। अतः भोजन के साथ अतिरिक्त नमक का सेवन न करें। 

धुर्मपान:- स्मोकिंग से हाई बीपी की समस्या बढती है। बीपी बढ़ने के कारण अन्य अंगो के साथ-साथ किडनी पर भी दबाव पड़ता है। इससे किडनी फेल्योर का खतरा कई गुना बढ जाता है, साथ ही किडनी के कैंसर का खतरा भी बढ़ता है। अतः धुर्मपान से बचें। 

पेन किलर:- जब कभी भी हमे हमारे शरीर किसी भी अंग में दर्द कि शिकायत होती है तो हम बिना सोचे समझे ही दर्द कि दावा का प्रयोग कर लेते हैं। उस समय तो हमे उस दर्द से निजात मिल जाती है। लेकिन दर्द की दवाओं (Pain Killer) का प्रयोग बिना डॉक्टर की सलाह के करने से शरीर के कई अंगों को नुकसान पहुंचता है। चूंकि किडनी शरीर का फिल्टर है, इसलिए दवाइयां इसमें पहुंच का उसे भी डैमेज करने लगती है। अतः बिना डॉक्टर कि सलाह के दर्द कि दवाइयों का सेवन न करें। 

हेपेटाइटिस बी और सी:- इस रोग में हमे थोड़ी भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि इससे शरीर के कई अंगों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण भी किडनी के नेफ्रॉन डैमेज होते है। अत: किसी मरीज को यदि किडनी की समस्याएं होती है तो डॉक्टर हेपेटाइटिस की जांच की भी सलाह देते हैं। ताकि अधिक डैमेज से बचाया जा सके।

डायबिटिक नेफ्रोपैथी:- डायबिटीज में शरीर में ब्लड शूगर लेबल बढ़ जाता है। इस कारण ब्लड वेसेल्स पर बुरा प्रभाव पड़ता है। किडनी शरीर का फिल्टर है। इसमें फिल्टर करने के लिए असंख्य यूनिट होते है। इन्हें नेफ्रान कहते हैं। उनमें भी सूक्ष्म ब्लड वेसेल्स होते हैं। ब्लड शूगर बढ़ जाने के कारण ये वेसेल्स भी डैमेज हो जाते हैं।इससे एक-एक करके नेफ्रॉन डैमेज हो जाते हैं। इसे ही डायबिटिक नेफ्रीपैथी कहते हैं। अत्यधिक डैमेज होने की स्थिति में प्रोटीन फिल्टर नहीं हो पाता है। इस कारण पेशाब में एल्ब्यूमिन आने लगता है। इसका पता पेशाब की जांच से चलता है। एक बार किडनी के डैमेज हो जाने की स्थिति में इसके फिल्टर करने की क्षमता कम हो जाती है। यदि समय पर इसका पता चल जाये, तो समय पर किडनी को बचाया जा सकता है अन्यथा किडनी फेल्योर का खतरा बढ़ जाता है। अतः ब्लड शुगर लेवल को नियंत्रित करें कि कोशिश करनी चाहिए।

पेशाब को रोकना:- पेशाब को रोक कर रखने पर यह किडनी पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। ऐसा करने से किडनी पर दबाव पड़ता है। ऐसा बार बार किया जाये, तो किडनी की कार्यक्षमता पर असर पड़ता है। 

ये पांच आदतें किडनी के लिए है खतरनाक
  • व्यायाम न करना
  • शराब का सेवन करना
  • अत्यधिक नॉन वेज खाना
  • पानी कम पीना और इससे डीहाइड्रेशन होना
  •  फास्ट फूड और सॉफ्ट ड्रिंक्स का सेवन

मासिक धर्म के दौरान खून के अधिक बहाव के कारण एवं उसके उपचार

अक्सर कई महिलाओं में पीरियड्स (Periods)(मासिक धर्म) के दौरान हेवी ब्लीडिंग (heavy bleeding) (खून का अधिक बहाव) की शिकायत होती है। इस अवस्था को मोनोरेजिया (Menorrhagia) कहते है। इस समस्या के कई कारण हो सकते हैं।
Heavy-bleeding-during-periods
हॉर्मोन का असंतुलन (Hormone Imbalance) :- हेवी ब्लीडिंग का एक मुख्य कारण अंडाशय से उत्सर्जित होने वाले हॉर्मोन में असंतुलन है। अंडाशय, मुख्यतः एस्ट्रोजेन (Estrogen) और प्रोजेस्टेरोन (Progesterone) नामक हार्मोन का निर्माण करती है जो महिलाओं के मासिक धर्म को नियंत्रित करने के लिए उत्तरदायी होती है। जब इन हार्मोन्स में असन्तुलन उत्पन्न होती है तो हेवी ब्लीडिंग की समस्या होती है।  यह अक्सर मेनोपॉज (menopause) (मासिक धर्म बंद होने की अवस्था) के दौरान होता है लेकिन कुछ युवतियों में भी यह हो सकता है।

यूटेराइन फाइब्रॉइड ट्यूमर्स:- यह भी हैवी ब्लीडिंग होने का एक प्रमुख कारण है। इसमें आम तौर गर्भाशय (uterus) में एक या एक से अधिक बिनाइन ( नॉन कैंसरस) ट्यूमर का निर्माण हो जाता है। यह अधिकतर 30 से 40 वर्ष की महिलाओं में गर्भाशय (uterus) में होता है। इसका उपचार मायोमेक्टोमी (myomectomy), इडॉमेट्रिक्ल एब्लेशन द्वारा किया जाता है।
सर्वाइकल पॉलिप्स (cervical polyps):- गर्भाशय (uterus)के निचले हिस्से को गर्भाशय ग्रीवा (cervix)कहते हैं। गर्भाशय और योनि के बीच में चिकनी, लाल अंगुलिनुमा आकृति विकसित होती है जिसे ही पॉलिप्स कहते हैं। पॉलिप्स मुख्यतः संक्रामण के कारण हो सकता है। यह भी ब्लीडिंग का कारण है। इसका उपचार एंटीबायोटिक्स से होता है।

पेल्विक इंफ्लेमेट्री डिजीज (pelvic implementary disease):- यह यूटेरस, फेलोपियन ट्यूब (fallopian tube) या सर्विक्स में इंफेक्शन के कारण होता है। इंफेक्शन मुख्यतः यौन संक्रामक रोगों के कारण होता है। इसका उपचार भी एंटीबायोटिक द्वारा होता है।

इसके अलावा सर्वाइकल कैंसर, इंडोमेट्रिराल कैंसर के कारण भी हेवी ब्लीडिंग की शिकायत होती है। सर्वाइकल कैंसर ह्यूमन पेपीलोमा वायरस के कारण होता है। इसका उपचार सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडिएशन थेरेपी के जरिये होता है। वहीँ इंडॉमेट्रियल कैंसर का उपचार हिरट्रेक्टोमी, कीमोथेरेपी या रेडिएशन।

गर्भावस्था में होने वाले स्ट्रेच मार्क से बचना है संभव

गर्भवस्था (Pregnancy) में होने वाली स्ट्रेच मार्क (stretch mark) एक ऐसी समस्या है, जिससे लगभग सभी  महिलाएं परेशान होती हैं। परंतु, यदि गर्भवती महिलाओं द्वारा थोड़ी सावधानी बरती जाये और समय पर उपचार कराया जाये, तो इस समस्या से अवश्य बचा जा सकता है।  

स्ट्रेच मार्क गर्भावस्था के दौरान होनेवाली समस्या है। इसमें त्वचा की निचली परत (dermis) के अंदर का प्रोटीन (collagen and elastin) टूट कर दरक जाता है। इसके कारण त्वचा में एक प्रकार का गड्ढा या स्कार बनता है। 

क्या हैं कारण (Cause of Stretch mark during pregnancy in hindi)

गर्भावस्था में भ्रूण के विकास के साथ - साथ पेट की त्वचा पर तनाव बढ़ता जाता है। ज्यादा तनाव के कारण मास्ट सेल (mast cell) से बहुत सारे केमिकल व एंजाइम निकलते हैं। इसमें इलास्टिन प्रोटीन और कोलेजेन को गलाने की शक्ति होती है। जिसके कारण शुरुआत में त्वचा में लालीपन आ जाती है और खुजली होने लगती है। इस अवस्था को लिनिया निगरा (linea nigra) कहते हैं। यह आगे चल कर सफ़ेद या त्वचा के रंग का हो जाता है। इस अवस्था को लीनिया अल्बा (linea alba) कहते हैं। गर्भावस्था में भ्रूण के विकास के साथ जिस हिसाब से गर्भ एवं पेट का आकार बढ़ता है, उस अनुपात में त्वचा नहीं फैल पाती है। जिस कारण त्वचा में तनाव उत्पन्न होता है और इसी से स्ट्रेच मार्क का निर्माण होता है। इसके अलावा अचानक वजन बढ़ना, अचानक लंबा होना, जिम में स्ट्रेचिंग के व्यायाम अधिक करने आदि से भी यह समस्या हो सकती है। महिलाओं में पेट॰ स्तन, जांघ आदि जगहों पर यह समस्या होती है।

कई बार यह देखा गया है कि लोग मिक्स क्रीम (जैसे - फोरडर्म, क्वाडीडर्म, बेतनोवेट जीएम, पेनडर्म) यानी स्टेरॉयड, एंटीबायोटिक और एंटीफंगल क्रीम को मिला कर लगा लेते हैं, इसे लगातार लगाते रहने से एपिडमींस (त्वचा कि ऊपरी सतह) पतली हो जाती है और कोलेजेन प्रोटीन कमजोर पड़ने से स्ट्रेच मार्क आते हैं। दमा या गठिया आदि के मरीज यदि स्टेरॉयड की गोली रोज लेते हैं, तो उनमें भी तनाववाली जगहों पर स्ट्रेच मार्क हो जाता है।    

स्ट्रेच मार्क से बचाव एवं उपचार 

शुरुआत में जब त्वचा में लालीपन आने लगता है उस समय इसका इलाज करने से ज्यादा लाभ होता है। परंतु यदि इसका रंग उजला हो चुका हो अर्थात यह लिनिया अल्बा में बदल चुका हो, तो इस अवस्था में ठीक होने में समय लगता है। इर्मेटोऑजिस्ट इस अवस्था में ट्रेटीनोइन क्रीम रात में तथा विटामिन इ, सेरामाइड व एलोवेरा मिश्रित क्रीम को दिन में लगाने के लिए दिया जाता हैं। इससे काफी लाभ होता है। अनेक प्रकार के लेजर (जैसे-पल्स डाइ लेजर, एनडी वाइएजी लेजर, फ्रैक्शनल सीओटू लेजर) आइपीएल मशीन, रेडियो फ्रिक्वेंसी मशीन से भी स्ट्रेच मार्क में 50% से ज्यादा बदलाव लाना संभव है। कभी-कभी टीसीए (25%) केमिकल लगाने से भी त्वचा ठीक होती है और नया कोलेजेन बनना शुरू होता है। इससे स्ट्रेचमार्क कम होता है। परंतु कभी-कभी ये स्ट्रेच मार्क इन सबके बावजूद भी पूरी तरह से नॉरमल स्किन में नहीं बदल पाती हैं। अतः बचाव बहुत जरूरी है।     

डायबिटीज रोगियों पर इंसुलिन का प्रयोग कैसे करें

आज के हमारी व्यस्त जीवनशैली एवं फास्ट फूड  के प्रयोग से अक्सर उम्र के बढ़ने के साथ-साथ बहुत सारे लोग डायबिटीज (Diabetes) अर्थात मधुमेह का शिकार होते जा रहे हैं। इसमें ब्लड शूगर लेवल (Blood sugar level) बढ़ जाता है, जो इंसुलिन (Insulin) से कंट्रोल होता है। इसे लेते समय भी कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है, अन्यथा साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं।
Use of insulin

हमारे शरीर में ब्लड में शूगर का लेवल काफी मायने रखता है। शरीर में शूगर के कई रूप होते हैं, जैसे- गैलेक्टोज (glactose), ग्लूकोज (glucose) आदि शूगर ही शरीर में ऊर्जा का स्त्रोत होता है, इसकी कम मात्रा और अधिक मात्रा दोनों से अंगो को नुकसान पहुंच सकता है। इसी के लेवल को शरीर में कंट्रोल करने का काम इंसुलिन करता है।


क्या है इंसुलिन (What is Insulin in hindi)
इंसुलिन एक होंमोंन है, जो अग्न्याशय (Pancreas) के वीटा सेल से उत्सर्जित होता है। हम जो भोजन करते है उस भोजन में कार्बोहाइड्रेट होता है। उस कार्बोहाइड्रेट से हमारे शरीर में शुगर का इस्तेमाल करने के लिए इंसुलिन ही सहायता करता है, जिससे शरीर को ऊर्जा प्राप्त होता है। यह हमारे शरीर में हाई ब्लड शुगर (High Blood Sugar) एवं लॉ ब्लड शुगर (Low Blood Sugar) को नियंत्रित करता है।

इंसुलिन कितने प्रकार का होता है (Types of Insulin in hindi)

रैपिड एक्टिंग इंसुलिन (Rapid Acting Insulin): यह इंसुलिन का इस्तेमाल करने  के 15 मिनट में काम शुरू कर देता है। यह 2-4 घंटे तक सक्रिय रहता है।

रेग्यूलर/शॉर्ट एक्टिंग इंसुलिन (Regular/Short Acting Insulin) : यह इंसुलिन इस्तेमाल करने के 30 मिनट के बाद खून में घुलता है। इसका असर 3-6 घंटे तक रहता है।

इंटरमीडिएट एक्टिंग इंसुलिन (Intermediate acting Insulin) : यह इंसुलिन इस्तेमाल करने के 2-4 घंटे में खून में घुलने लगता है और इसका असर 12-18 घंटे तक रहता है।

लॉन्ग एक्टिंग इंसुलिन (Long Acting Insulin) : इसमें इंसुलिन कई घंटों के बाद खून में घुलता है। यह 24 घंटे के दौरान खून में ग्लूकोज के लेवल को कम रखता है।
इंसुलिन के प्रयोग से पहले रखें ध्यान 

  • अगर इंसुलिन से एलर्जी है, तो इसे न लें। इसके अलावा यदि ब्लड शूगर कम है (हाइपोग्लाइसेमिया) तब भी इससे परहेज करें। 
  • यदि लिवर या किडनी रोग हो, तो डॉक्टर को जरूर बताएं। 
  • दूध पिलाने वाली महिलाओं को इंसुलिन लेने से पहले डॉक्टर के सलाह अवश्य ले लेना चाहिए।
  • पहले से डायबिटीज के लिए कोई दवा ले रहे हैं, जैसे पायोलिटाजोन और रोगीग्लिटाजोन तो इंसुलिन लेने से पहले डॉक्टर को जरूर बताएं। ऐसे में इंसुलिन लेने से हृदय रोगों का खतरा हो सकता है। 
  • ट्रीटमेंट के दौरान प्रेग्नेंट हैं या तैयारी में है, तब भी डॉक्टर से सलाह लें। 
क्या हैं इसके साइड इफेक्ट्स 

  • शरीर में इंसुलिन की मात्रा बढ़ जाने से ग्लूकोज की मात्रा कम हो जाती है। इस स्थिति को हाइपोग्लाइसीमिया कहते हैं।
  • इससे सिर में हल्कापन, कांपना, अशक्तता, पसीना आदि लक्षण हो सकते हैं।
  • यदि ये लक्षण गंभीर हो जाएं, तो रोगी अपनी चेतना भी खो सकता है।
  • इन्सुलिन की कमी से, शरीर में अधिक मात्रा में फैट जमा होने लगता है।
  • आहार के प्रति लापरवाही बरतने एवं इन्सुलिन की सही मात्रा न लेना खतरनाक हो सकता है।
डायबिटीज के टाइप के अनुसार दिया जाता है इंसुलिन

टाइप 1: मरीज पूरी तरह इंसुलिन पर निर्भर रहता है। शरीर इंसुलिन पर निर्भर रहता है। शरीर इंसुलिन नहीं बना पाता है। यह आनुवांशिक है और ज्यादातर युवाओं और बच्चों में होता है। इसे जुवेनाइल डायबिटीज कहते हैं। इसमें अधिकतर इंजेक्शन दिया जाता है।

टाइप 2: शरीर कम मात्रा में इंसुलिन बनाता है। ऐसे रोगियों को दवाई देकर ग्लूकोज सही लेवल में लाते हैं। यह बूढ़े या मोटे लोगों में होता है। इसमें ओरल मेडिसिन दिया जाता है। पहले से इंसुलिन बनने से इसकी मात्रा कम दी जाती है। 90% केस लेवल टाइप 2 के होते हैं। यदि ग्लूकोज का स्तर 200 से कम हो, तो दवा के स्थान पर व्यायाम, भोजन पर नियंत्रण और आहार में परिवर्तन लाकर उपचार किया जा सकता है। 

जीवनशैली रखें नियंत्रित : डायबिटीज में खान-पान का विशेष ध्यान रखें। खाना सेहतमंद हो, तैलीय पदार्थो और मीठी चीजों से जीवन भर दूरी बना कर रखें। प्रतिदिन व्यायाम करें। इस रोग में पैरों एवं आंखों का खास ख्याल रखें। नियमित रूप से अपनी जांच कराते रहें। 

शौच में खून आना कैंसर भी हो सकता है

आमतौर पर शौच में खून आने की समस्या पाइल्स (बाबासीर) के कारण ही होती है। परंतु यदि आपको बाबासीर की  समस्या नहीं है और आपके शौच में खून आ रहा है तो आप सतर्क हो जाइये। इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए और तुरंत ही किसी अनुभवी डॉक्टर से उपचार अवश्य करना चाहिए।

एक व्यक्ति को कई दिनों से शौच में खून आने की शिकायत थी। उस व्यक्ति ने इस संबंध में डॉक्टर की सलाह ली। डॉक्टर ने जांच के उपरांत पाइल्स डायग्नोसिस किया और पाइल्स का ऑपरेशन किया गया। परंतु इलाज हो जाने के बाद भी उसके शौच में खून आने की समस्या ठीक नही हुई। इसके बाद उसे कुछ अन्य जांच जैसे-यूएसजी, सीटी स्कैन कराने की सलाह दी गयी। जांच में पता चला कि उसके रेक्टम (आंत के आखिरी छोर) में कैंसर है। तुरंत उसका ऑपरेशन किया गया। इस तरह अब मरीज बिलकुल ठीक है और उसके शौच में खून आने की समस्या समाप्त हो चुकी है।  

पाइल्स के अलावा भी शौच में खून आ सकता है 

आजकल मसालेदार भोजन, हरी सब्जियों का सेवन न करना, फास्ट फूड का अधिक सेवन और खान-पान में अनियमितता के कारण पाइल्स की समस्या आम  हो गया है। अधिकांश लोग किसी-न-किसी रूप में इस रोग से ग्रसित हैं। इस प्रकार के भोजन के सेवन से कब्ज की शिकायत अधिक होती है। इससे शौच के समय मांसपेशियों और नसों पर जोर पड़ता है, जिससे पाइल्स या फिस्टूला होता है। इसके अलावा तंबाकू और शराब के सेवन से भी यह समस्या हो सकती है। पर आपको यह भी ध्यान देना चाहिए कि शौच में खून आने का मतलब सिर्फ बवासीर नहीं होता है। यह कभी-कभी किसी गंभीर रोग का लक्षण भी हो सकता है। वैसे तो 90% मामलों में पाइल्स के कारण ही शौच में खून आता है लेकिन पांच से 10 प्रतिशत मामलों में यह समस्या आंत के कैंसर के कारण भी हो सकती है। शौच में खून आने के कई कारण हो सकते हैं। इसके लिए किसी अनुभवी चिकित्सक या सर्जन से सलाह लेना आवश्यक है। इसके लिए चिकित्सक प्रोटोस्कोपी, सीस्मोइडोस्कोपी तथा जरूरत पड़ने पर कोलोनोस्कोपी भी कराने की सलाह दे सकते हैं। 

सर्जरी के अलावा भी हैं विकल्प

जरूरी नहीं है कि पाइल्स का इलाज हमेशा सर्जरी से ही हो। रोग शुरुआती स्टेज में है, तो सबसे पहले भोजन की आदतों में सुधार करना चाहिए। फर्स्ट या सेकेंड डिग्री के पाइल्स में स्क्लेरोथेरेपी (इंजेक्शन की मदद से दवा को पाइल्स में इन्जेक्ट करना) की जाती है। जब पाइल्स थर्ड या फोर्थ डिग्री का हो जाता है, तब ऑपरेशन एकमात्र इलाज है। आजकल एक नयी मशीन आ गयी है, जिसे एमआइपीए कहते हैं। इसकी मदद से सर्जरी होती है। यह सफल तकनीक है। इसमें मरीज को किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होती है। 24 घंटे के अंदर ही मरीज सामान्य रूप से खाना खाने लगता है और घूमना-फिरना शुरू कर देता है, इसलिए यदि किसी को शौच में खून आने की शिकायत हो, तो हल्के में नहीं लेना चाहिए। इसके लिए सुयोग्य किसी अच्छे डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए, क्योंकि यदि यह रोग कैंसर होता है और इसका पता पहले चल जाता है, तो इसका इलाज संभव है, इसलिए मरीज को सतर्कता बरतनी चाहिए।    

एंटी बैक्टीरियल गुणों से भरपूर है अनार

"अनार में एंटी ऑक्सीडेंट्स, एंटी बैक्टीरियल, फाइबर, विटामिन, पोंलीफिनोल, टैनिन आदि गुणकारी तत्व मौजूद होती है जो हृदय रोग, कैंसर, वजन कम करने में, दांत रोग, कब्ज, तनाव आदि को दूर करने में सहायक होता है।"

अनार (Pomegranate) बाजार में हमेशा प्राप्त होनेवाला फल है। यह फल खाने में जितना मीठा और स्वादिष्ट होता है, हमारे शरीर के लिए भी उतना ही फायदेमंद (Benefit) होता है। रोजाना एक अनार का सेवन आपकी इम्यूनिटी को काफी मजबूत बना सकता है। 
आनर के गुण

हमारे शरीर के अंगों में होने वाले अनेक समस्याओं को दूर करने के लिए अनार काफी फायदेमंद होता है। खाने से अनेक रोगों में फायदा होता है। यह शरीर को स्वस्थ रखने में काफी मददगार है।

हृदय रोग (Heart Disease) : पॉलीफिनोंल, टैनिन और दूसरे एंटी ऑक्सीडेंट (Anti Oxidant) की मात्र अनार में काफी होती है।  ये तत्व ब्लड प्रेशर और बैड कोलेस्ट्रॉल को कम रखते हैं। जिसके कारण यह हृदय को सुरक्षित रखते हैं।

कैंसर (Cancer) : अनेक शोधों से पता चला है कि अनार में मौजूद एंटी ऑक्सीडेंट्स और पॉलीफिनोल कैंसर से भी बचाने का कार्य करते हैं एवं कैंसर उत्पन्न करनेवाली कोशिकाओं को भी नष्ट करते हैं। 

वजन रखता है सामान्य (Weight Loss) : अनार के बीजों में कैलोरी काफी कम होती है, लेकिन ये फाइबर और विटामिन से भरपूर होते हैं। इससे वजन नियंत्रित रहता है। 

स्वस्थ त्वचा (Skin) : अनार रोज खाने से त्वचा हमेशा युवा, स्वस्थ रहती है। झुर्रीयां पड़ने का खतरा भी कम होता है। इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट्स उम्र के प्रभाव को कम करने का कार्य करते हैं।  

दांत रोगों में (Teeth Disease) : इसमें एंटी बैक्टीरियल गुण होते हैं। यह दांत रोगों में लाभकारी है। इसका जूस पीने से डेंटल प्लाक दूर रहते हैं। इससे दांत और मसूड़े स्वस्थ रहते हैं। 

पाचन रखता है सही : हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के गाइडलाइंस के अनुसार 20 से 35 ग्राम फाइबर रोज खाना चाहिए। अनार में यह तत्व प्रचुर मात्रा में होता है। यह कब्ज को दूर रखता है और पाचन तंत्र सुदृढ़ रखता है। इससे दूसरे पोषक तत्व शरीर द्वारा आसानी से अवशोषित किये जाते हैं।

बढ़ाता है इम्युनिटी (Immunity): इसमें विटामिन सी भी काफी मात्रा में होता है। यह इम्युनिटी बूस्ट करता है। इससे शरीर कई प्रकार के इन्फेक्शन से सुरक्षित रहता है। 

तनाव करता है दूर : क्वीन मार्गरेट यूनिवर्सिटी के रिसर्च के अनुसार अनार का जूस पीने से तनाव कम होता है। इस शोध में देखा गया कि जिन लोगों ने अनार का जूस पीया उनमें कॉटिर्सोल का लेवल कम पाया गया। यह होंर्मोन तनाव बढ़ाता है। 

दूर करता है अलजाइमर्स का खतरा : लोमा लिंडा यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च में पता चला है कि रोज एक गिलास अनार का जूस पीने से अल्जाइमर्स उत्पन्न करनेवाले हानिकारक प्रोटीन का बनना बंद हो जाता है।   

न्यूट्रिशन फ़ैक्ट (Nutrition of Pomegranate)

मात्रा प्रति सौ ग्राम
* कैलोरी 83%
* फैट 1.2 ग्राम
* सेचुरेटेड फैट 0.1 ग्राम
* पॉलीअनसेचुरेटेड फैट 0.1 ग्राम
* कोलेस्ट्रॉल 0 मिलीग्राम
* सोडियम 3 मिलीग्राम
* पोटैशियम 236 मिलीग्राम
* कार्बोहाइट्रेट 19 ग्राम
* फाइबर 4 ग्राम
* शूगर 14 ग्राम
* प्रोटीन 1.7 ग्राम
* विटामिन ए 0%
* कैल्शियम 1%
* विटामिन सी 17%
* विटामिन बी-6 5%

नोट : इसमें कैलोरी काफी होती है। अतः डायबिटीज रोगी अनार का जूस न पिएं।